विश्व
पुस्तक मेले में भाषा के स्तर पर भारत की उपस्थिति का अध्ययन किया जाना
चाहिए। हिन्दी को विश्व की बड़ी भाषाओं में एक होने का दावा तो किया जाता
हैं लेकिन वास्तव में नदी उल्टी बह रही है। हिन्दी की वास्तविक स्थिति के
साथ संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज भारतीय भाषाओं की हालत भाषा विमर्श
में गंभीरता की मांग कर रही है। साथ ही पाठकों की रूची के अनुरूप प्रकाशनों
के नहीं होने के कारण प्रकाशन का व्यवसाय भी संकट में दिखाई दे रहा है।
मीडिया
स्टडीज ग्रुप ने इसके लिए दिल्ली में आयोजित पिछले चार विश्व पुस्तक मेले
का एक तुलनात्मक अध्ययन किया है।यह अध्ययन मीडिया के क्षेत्र में लोकप्रिय
मासिक शोध पत्रिका जन मीडिया में प्रकाशित हो रहा है। जन मीडिया अप्रैल
2012 से हर महीने नियमित दिल्ली से प्रकाशित होने वाली हिन्दी में देश की
एक मात्र शोध पत्रिका है। भारत सरकार के उच्च शिक्षा विभाग के तहत 1957 में
नेशनल बुक ट्रस्ट की स्थापना की गई थी और उसके मुख्य उद्देश्यों में
भारतीय भाषाओं में समाज में पढ़ने की रुचि बढ़ाने के लिए विभिन्न स्तरों
पर काम करना शामिल है।इसी उद्देश्य के तहत वह हर वर्ष विश्व पुस्तक मेले का
आयोजन करता है।
पुस्तक मेले में शामिल होने वाले प्रकाशनों की संख्या-
2013--- 1098
2014---1027
2016---850
2017----789
(विश्व
पुस्तक मेलों की नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित डायरेक्टरी के आधार पर
प्राप्त उपरोक्त आंकड़े। अध्ययन के दौरान 2015 के मेले की डायरेक्टरी की
अनुपलब्धता के कारण वर्ष 2015 के आंकड़े शामिल नहीं है लेकिन 2015 में भी
प्रकाशनों की संख्या 2014 की तुलना में कम होने की जानकारी अन्य स्रोतों से
हमें प्राप्त हुई है।
विश्व पुस्तक मेला 2013 में भाषावार शामिल
प्रकाशकों की संख्या इस प्रकाऱ है।मेले में लगे कुल 1098 स्टॉल और स्टैंड
के बीच असमिया 03, बांग्ला05, अंग्रेजी643, गुजराती02, हिन्दी323,
कश्मीरी01, मैथली01, मलयालम12,मराठी02,उड़िया01,पंजा
बी 06,संस्कृत18,तमिल05,तेलगू02,उर्दू44 और विदेशी प्रतिभागी 30 थे।
2013
के विश्व पुस्तक मेले में भारतीय भाषाओं की पुस्तकों के प्रकाशन और
प्रकाशकों के हालात का अंदाजा प्रकाशकों की संख्या को देखकर लगाया जा सकता
है। अंग्रेजी की तुलना में हिन्दी के प्रकाशकों की उपस्थिति आधी है। लेकिन
हिन्दी की वास्तविक उपस्थिति इससे भी बदत्तर है। हिन्दी के प्रकाशकों की
वास्तविक संख्या और भी कम है। हिन्दी के प्रकाशकों की मेले में उपस्थिति को
दर्शाती संख्या में ये तथ्य भी शामिल है कि हिन्दी के कई बड़े प्रकाशकों
ने दस-दस प्रकाशन गृह खोल रखे हैं और उन सभी प्रकाशन गृहों के नाम से मेले
में स्टॉल आवंटित किए जाते है जबकि मेले में उनकी उपस्थिति उन प्रकाशन
गृहों के नाम से नहीं होती है। बल्कि वे एक प्रकाशन के बड़े बैनर के तहत
जगह घेरने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले नाम भर हैं।मीडिया स्टडीज ग्रुप
ने 2013 में अध्ययन कर ये पाया था कि हिन्दी के ऐसे 11 प्रकाशक है जिन्होने
93 स्टॉल लगाए। आंकड़ों के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि 11 प्रकाशकों
ने हिन्दी के कुल स्टॉल्स में से 30 प्रतिशत स्टॉल लगाए। यानी लगभग तीन
प्रतिशत हिन्दी के प्रकाशकों के अधीन 30 प्रतिशत स्टॉल थे।
विश्व पुस्तक
मेले में भारतीय भाषाओं की उपस्थिति ज्यादा से ज्यादा सुनिश्चित हो सके,
इस तरह के प्रयास को भी काफी पीछे छोड़ा दिया गया है। इसके स्पष्ट संकेत
मिलते हैं। 2013 की तुलना में बाद के तीन पुस्तक मेलों में भारतीय भाषाओं
की उपस्थिति के रुझान को समझा जा सकता है। इस तुलनात्मक अध्ययन में मेले
में तीन प्रतिशत हिन्दी के प्रकाशकों द्वारा 30 प्रतिशत स्टॉल लेने की
प्रवृत्ति को आगे शामिल नहीं किया गया है क्योंकि यह एक स्थायी प्रवृत्ति
बन चुकी है। हिन्दी के स्टॉलों के लिए दी जाने वाली सुविधाओं का लाभ कई
प्रकाशन गृहों के नाम पर बड़े प्रकाशक ले लेते हैं और उन्हें एक तरह से
स्वीकृति प्राप्त है। लिहाजा भारतीय भाषाओं और प्रकाशनों की संख्या के कम
होते जाने का तुलनात्मक अध्ययन ही आगे दे रहे हैं।
2014 के विश्व
पुस्तक मेले में भाषावार 1027 प्रकाशनों की भागेदारी में असमिया 3,
बांग्ला09, अंग्रेजी 596, हिन्दी 324,मलयालम 09 ,मराठी 01, उड़िय01,
पंजाबी04,संस्कृत 05, सिंधी01,तमिल07,तेलुगू01,उर्दू41,विदेशी
प्रतिभागी25 हैं। गौर तलब है कि पुस्तक मेले में न केवल प्रकाशनों की
भागोदारी की संख्या ही कम होने की प्रवृति बढ़ने के संकेत है जो कि आने
वाले वर्षों में और भी स्पष्ट होते हैं, कई भारतीय भाषाओं की उपस्थिति
मात्र के भी खत्म होने के संकेत मिलते हैं। 2016 के पुस्तक मेले में कुल
850 प्रकाशनों में असमिया01,बांग्ला04,अंग्रेजी
483,गुजराती01,हिन्दी289,मलयालम06,मराठी01,उड़िया02,पंजाबी10,सिंधी01,तमिल04,उर्दू21,विदेशी प्रतिभागी 27 शामिल है।
2013
की तुलना में 2016 के पुस्तक मेले में भारतीय भाषाओं में असमिया प्रकाशन
की संख्या मेले में घटकर एक पर पहुंच गई तो बांग्ला की चार, गुजराती की एक,
मराठी की एक पर पहुंच गई। दूसरी तरफ कश्मीरी, मैथली, तेलगू की उपस्थिति
मात्र भी खत्म हो गई। तमिल प्रकाशनों की संख्या भी चार पर पहुंच गई। केवल
पंजाबी भाषा के प्रकाशनों की संख्या में इजाफा दिखाई देता है। 2013 की
तुलना में 2016 में उर्दू प्रकाशनों की संख्या आधे से भी कम हो गई। 2017
में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में भारतीय भाषाओं की उपस्थिति और भी कम हुई।
कुल 789 प्रकाशनों में बांग्ला 07,अंग्रेजी448,गुजराती01,हिन्दी272,मलयालम06,मराठी01,उड़िया01,पंजाबी10,संस्कृत 03, सिंधी03,तमिल01,तेलुगू01,उर्दू
16, विदेशी प्रतिभागी19 थे। 2016 में भारतीय भाषाओं की विश्व पुस्तक मेले
में उपस्थिति कम होने का जो रुझान दिखाई दिया उसमें सुधार लाने के प्रयास
किए गए, यह 2017 के पुस्तक मेले में दिखाई नहीं देता है बल्कि उस रुझान की
दिशा अपनी गति की तरफ तेजी से बढ़ती दिख रही है। 2013 के बाद 2016 में कुल
प्रकाशनों की संख्या में जो कमी देखी गई, वह कमी 2017 में और बढ़ी। इस वर्ष
मेले में गायब होने वाली भारतीय भाषाओं में असमिया शामिल हो गई। उत्तर
पूर्व के राज्यों की बड़ी भाषा असमिया की उपस्थिति अनुपस्थिति में
परिवर्तित दिखाई देती है। कश्मीरी, मैथली में भी कोई सुधार दिखाई नहीं देता
है। तेलगू अनुपस्थिति को उपस्थिति के रूप में दर्ज भर कराती है, लेकिन
तमिल की संख्या पिछले मेले की तुलना में केवल पच्चीस प्रतिशत रह गई। उड़िया
की संख्या भी दो से एक हो गई। सिंधी और संस्कृत की उपस्थिति में थोड़ा
सुधार दिखाई दिया। सिंधी के केवल एक प्रकाशन की उपस्थिति 2016 में थी जो
2017 में संस्कृत के बराबर तीन हो गई। 2016 में संस्कृत मेले से अनुपस्थित
थी। लगातार जिन भाषाओं की उपस्थिति तेजी से मेले में घट रही उनमें उर्दू एक
है। उर्दू के प्रकाशनों की उपस्थिति 2016 के मुकाबले और कम हो गई। यदि
2013 से तुलना करें तो उसकी उपस्थिति सत्तर प्रतिशत के आस-पास कम हुई है।
इस
तरह पिछले कई वर्षों से पुस्तक मेले में प्रकाशकों की कम होती हिस्सेदारी
भारतीय भाषाओं के प्रकाशनों की स्थिति के कमजोर होते जाने का संकेत देती
है। दूसरा भाषाओं के जरिये भारत विश्व के पटल पर अपने मुक्कमल रूप में
उपस्थित नहीं दिखता है।भाषावार प्रकाशनों में बड़े प्रकाशकों के व्यवसाय का
विस्तार हुआ है। लेकिन भाषाओं के प्रकाशनों की वास्तविक संख्या में
बढ़ोतरी नहीं देखने को मिल रही है।वास्तविक संख्या में बौद्धिक विमर्श को
विस्तार देने वाली और मौलिक प्रकाशनों की कमी बढ़ रही है। हिन्दी में जो
स्ट़ॉल की संख्या दिख रही है, उस संख्या में घुसकर देखें कि कितनी
धर्म-कर्म, कर्मकांडी, जादू टोना, अश्लील साहित्य की दुकानें हैं।पुस्तक
मेले में स्टॉल और स्टैंड के बीच भी एक खाई साफ दिखती है। स्टैंड को मेले
की फुटपाथी दूकान के रूप में देखा जा सकता है लेकिन स्टैंडों पर बौद्धिक
विमर्शों और मौलिक प्रकाशनों की संख्या बढ़ रही है।
मीडिया स्टडीज ग्रुप , चैयरमैन
अनिल चमड़िया
9868456745