हिन्‍दी

रघुवीर सहाय ने हिन्दी को कभी दुहाजू की बीबी का संबोधन देकर उसकी हीन अवस्था की ओर इशारा किया था। पर पिछले पचास वर्षों में हिन्दी भीतर ही भीतर बढ़ती-पसरती जा रही और आज की तारीख में वह बाजार के तौर-तरीके को प्रभावित करने की स्थिति में आ चुकी है। जो सहज ही है। उसके स्वरूप में भी कुछ सतही परिवर्तन होते दिख रहे हैं। विपरीत परिस्थितियों में ही हिन्दी का विकास हुआ है। मुगलकाल में भक्ति आंदोलन ने हिन्दी को जन जन से जोड़ा था। अंग्रेजी राज में स्वतंत्रता आंदोलन की भाषा होने के चलते हिन्दी का विकास हुआ। इन पचास सालों में हिन्दी ने धीरे धीरे ही सही अपनी पकड़ मजबूत की है तो इसका कारण इसका राजकाज की भाषा नहीं बन पाना ही है। इस सुस्त रफ्तार से एक दिन हिन्दी कछुआ दौड़ में अंग्रेजी को परास्त कर देगी।
पिछले सालों में हिन्दी का मीडिया और राजनीति के क्षेत्र में अप्रत्याशित विकास हुआ है। हिन्दी अखबारों की पाठक संख्या करोड़ों है और लाख पाठकों तक पहुंचने वाले हिन्दी के अखबार लोकप्रिय नहीं माने जाते।आज आम भारतीय खबर अपनी भाषा में पढ़ना चाहता है तो हिन्दी की पकड़ बढ़ना स्वाभाविक है। सारे चैनल हिन्दी की कमाई खाते हैं। हिन्दी के न्यूज पोर्टल भी ह्टिस देने और अपडेट करने में अंग्रेजी से आगे निकल रहे। कंम्प्यूटराइजेशन से हिन्दी का बाजार लगातार गर्म हो रहा। आज जिनका काम हिन्दी की कमाई से नहीं चलता, वह भी हिन्दी वेबसाइट चला रहा। अब मंगल और बहुत सारे फान्ट कान्वर्टरों के चलते हिंदी में लिखना आसान है और यह पूरी दुनिया के हिन्दी भाषियों को जोड़ रहा। यह भविष्य में हिन्दी के विकास को नयी जमीन मुहैय्या कराएगा।
रोमन में नेट पर हिन्दी ही नहीं भोजपुरी कविताओं की मांग भी बढ़ रही। जगह बना लेने के बाद उनके स्तर पर भी बात शुरू हो जाएगी।
मीडिया के बाद राजनीति हिन्दी की दूसरी रणभूमि है जहां वह मैदान मार रही। वहां तो हिन्दी की सहायक लोकभाषाओं तक ने रंग दिखा दिया है। लालू प्रसाद की भाषा इसका उदाहरण है। संसद से सड़क तक वे अपनी भोजपुरी मिश्रित हिन्दी का लोहा मनवा चुके हैं। भारत का प्रधानमंत्री होने की तो अहर्ता ही हिन्दी बोलना है। यह वह क्षेत्र है जहां अंग्रेजी को लगातार मुंह की खानी पड़ी है। अगर मनमोहन ने हिंदी से खुद को दूर रखा तो वे भारतीय जनता से भी दूर रहे। मोदी व राहुल का सारा जलवा हिन्‍दी में आम लोगों को संबोधित करने पर ही टिका है।
बाजार जिस आम जन की गांठ ढीली करना चाहता है उसका चालीस फीसदी हिन्दी भाषी है और अंग्रेजी भाषी मात्र तीन फीसदी। यह हिन्दी जन जैसे जैसे शिक्षित होता जाएगा बाजार को अपना सामान लेकर उस तक जाना होगा। आज कई अंग्रेजी अखबार हिन्दी की हेडिंग लगा रहे। चाय, पानी, चाट, पूरी, दोसा, दादा, पंचायत जैसे शब्दों को आक्सफोर्ड डिक्शनरी में शामिल करना पड़ा है। लोकतंत्र के साथ आमजन की भाषा के बाजार का बढ़ना सहज है। बाकी जो दुर्दशा है उस पर ध्यान देने की जरूरत है और यह काम हमको-आपको ही करना होगा।

---अपनी जड़ें पसारती हिन्‍दी - कुमार मुकुल ---

Monday 13 February 2017

अंग्रेजी का अनुकरण कर अखबार कभी अच्‍छे नहीं हो सकते - प्रभाष जोशी

  - प्रभाष जोशी से कुमार मुकुल की बातचीत - 1997 प्रभात खबर

राष्‍ट्रीय पुनरनिर्माण के मुद्दों पर बहस में भाग लेने आए लोगों में वरिष्‍ठ पत्रकार प्रभाष जोशी भी अन्‍य वक्‍ताओं के साथ अनुग्रहनारायण संस्‍थान की अतिथिशाला में ठहरे थे। सुबह नौ बजे मैं पहूंचा तो कमरे में आसा के एकाध लडके थे। बेड पर उनकी चौडे पाढ वाली धोती खोलकर रखी थी। उसी पर एक कलफ चढा खादी का कुरता भी। तभी बाथरूम का दरवाजा खुला,जोशी जी ने पुकारा कि यार,यहां तो पानी ही नहीं आ रहा, बुलबुले फूट रहे हैं। तभी सुरेन्‍द्र किशोर आए। उन्‍होंने आसा के व्‍यवस्‍थापकों को सलाह दी कि आगे से जोशी जी को कम से कम ऐसी जगह ठहराएं जहां फोन हो। एक कर्मचारी नीचे से बाल्‍टी में गर्म पानी लेकर आया। उसने आग्रह किया कि बाल्‍टी जल्‍द खाली कर दें,क्‍योंकि कभी भी किसी वीआईपी का फोन आ सकता है- कि कमरा तैयार करो। सुरेन्‍द्र जी ने पूछा कि कैसे वीआईपी तो उसने बताया, कोई आईएएस या वाइसचांसलर।
जोशी जी नहा कर निकले...। यार सुरेन्‍द्र अपन को तो यहां बहुत कष्‍ट हुआ। लगता है कि बहुत दिन से यह बाथरूम यूज नहीं हुआ था। सब साफ करना पडा। आधा घंटे और इंतजार करवाउंगा अपन। मेरा धोती पहनना पूरा कर्मकांड ही है। मेरी बेटी कहती है कि आप तो बंगाली स्त्रियों से भी अच्‍छी धोती बांधते हैं, फिर उन्‍होंने बिसलरी की बोतल से पानी पिया। सुरेन्‍द्र जी ने परिचय कराया कि इन्‍हें समय चाहिए इंटरव्‍यू के लिए। जोशी जी ने पूछा, तो आप मेरा आंत्रव्‍यू लेंगे,जी हां - साक्षात्‍कार। शाम का समय मिला।

शाम में हमलोग बैठे घंटे भर विनयन व शेखर से बात करने में गुजरे। फुर्सत मिली तो जोशी जी बोले,यार बात तो होगी ,पहले कहीं से यह पता करो कि क्रिकेट का स्‍कोर क्‍या है..। आखिर स्‍कोर मालूम हुआ।
पहला सवाल मेरे मन में यह था कि उत्‍तरआ‍धुनिकता-अंग्रेजी की वापसी और ग्‍लोबलाईजेशन से हिंदी पत्रकारिता कैसे निपटेगी...।

उनका कहना था कि भारत में उत्‍तरआ‍धुनिकता नहीं है,हमारा समाज आधुनिक है,यह कहना भी मुश्किल है। हिंदी पत्रकारिता के सामने संकट तो है,पटने में 12 पेज के अखबार ढाई रूपये में मिलते हैं और दिल्‍ली में 24 पेज के अखबार डेढ रूपये में। पर डेढ में बेचकर भी उन्‍हें करोडों की कमाई हो जाती है। इसका कारण है ग्‍लोबलाइजेशन व विज्ञापन। यह 1991 के बाद की आर्थिक स्थिति का नतीजा है। ग्‍लोबलाइजेशन समाज को टुकडों में बांट कर देखता है।
भाषा के अखबार जनता के अखबार हैं, पर उनका हितसाधक समाज टुकडों में बंटा है। इसे राजनीति और व्‍यापार ने मिलकर बांटा है। आज लालू,मुलायम,नीतीश वोट बैंक की राजनीति करते हैं। मुलायम ने कहा था कि मुझे उत्‍तराखंड की चिंता नहीं है। आखिर एक मुख्‍यमंत्री एक पूरे इलाके को छोड देता है कि वह उसका बोट बैंक नहीं है। फिर भी भाषा के अखबार जनता के होकर ही जीवित रह सकते हैं। पर इसे बांटने वाली प्रवृति को रोकना होगा1 इधर प्रमंडल का अखबार निकालने का चलन बढा है। यही नहीं आजजागरण वाले तो जिले का अखबार निकालने लगे हैं। इसी से समाज बंटता है। पर अखबार मालिकों के इशारे पर चल रहे हैं, वे बताते हैं कि- इधर देश के सबसे बडे प्रकाशन गृह के अध्‍यक्ष ने मुझसे कहा कि इन, जिले वाले अखबार, में क्‍या खराबी है...। खर्च कम है ,लागत भी कम।

सौंदर्य प्रतियोगिता के विरोध में एक आदमी जल मरा। आरक्षण के विरोध में भी ऐसा हुआ था। पर महिला आरक्षण का मुददा गायब कर दिया गया।
इस सब की बाबत वे बताते हैं कि 1996 के चुनाव में सारी पर्टियों के घोषणापत्र में 33 फीसदी आरक्षण की बात थी। पर उसे टाला जा रहा है। महिलाओं का दबाव बढ रहा है। पर मौजूदा लोकसभा के अधिकांश सदस्‍य ऐसा नहीं चाहते।

इधर शिवसेना व वाघेला तक ने क्षेत्रीय दलों का साथ चाहा है। क्‍या राष्‍ट्रीय दलों का जमाना लद गया है...।
इस पर जोशी जी बताते हैं कि आज कोई दल राष्‍ट्रीय रह ही नहीं गया है।,उत्‍तर के कई राज्‍यों में कांग्रेस का नामलेवा नहीं रह गया है। यहां एक ही पार्टी थी कांग्रेस,उसकी जगह क्षेत्रीय पार्टियां ले रही हैं। पर ये सीमित क्षेत्र की बंटी पार्टियां हैं। भाजपा और क्षेत्रीय पर्टियां साथ काम करें तो कोई सूरत उभरे पर वह संभव नहीं लगती।

अचानक मेरा ध्‍यान घाली पर जाता है। कया यूएनओ एक अमेरिकी जेबी संस्‍था है...। घाली के मुददे पर अमेरिका ने वीटो कर दिया। इराक के मामले में तो राष्‍ट्रसंघ ने युद्ध की स्‍वीकृति दी पर अफगान मामले में ढंग से निंदा भी नहीं की..।

इससे सहमत होते जोशी जी कहते हैं कि सोवियत संघ के पराभव के बाद अफगानिस्‍तान तबाही में है। एक लाख लोग वहां मारे जा चुके हैं। अमेरिका ने पाकिस्‍तान को अफगानिस्‍तान में फंसाकर रख दिया है। पर पाक का अपना ही घर नहीं संभल रहा । जहां तक यूएनओ की बात है अमेरिका हमेशा से इसका प्रयोग विश्‍व जनमत को अपनी ओर मोडने में करता रहा है।

मैं फिर पत्रकारिता पर आता हूं। इधर राजेंद्र यादव ने अंग्रेजी पत्रकारिता से हिन्‍दी की तुलना कर उसकी फजीहत की कोशिश की है। क्‍या यह हिंदी की हीनता ग्रंथी है...।

इस तरह की तुलना को जोशी जी गलत मानते हैं। ...हीनता से बचने के लिए नहीं,परंपरा को समृद्ध करने के लिए हमें ऐसी तुलना से बचना चाहिए। हमारी भाषाई पत्रकारिता अंग्रेजी से समृद्ध है। अक्‍सर लोग अंग्रेजी से तुलना हिन्‍दी को झाडू लगाने के लिए करते हैं। अंग्रेजी की पत्रकारिता आज उल्‍टे बांस बरेली को भेज रही है। अंग्रेजी का अनुकरण कर हिंदी के अखबार कभी अच्‍छे नहीं हो सकते।
कुछ लोग क्षेत्रीय भाषायी पत्रकारिता को हिन्‍दी से समृद्ध बताते हैं...

जवाब में वे कहते हैं कि यह हिन्‍दी की अंग्रेजी से हीनता जैसी ही ग्रंथी है। यूं भाषायी पत्रकारिता ही हिंदी की जननी है। भारतीय पत्रकारिता की शुरूआत ही बंगाल से हुई है। जोशी आजकल गांधी को फिर से पढ रहे हैं। उनका मानना है कि साम्‍यवाद के पराभव व पूंजीवाद की विकृतियों के बीच का रास्‍ता गांधी से ही निकलेगा। यह हो सकता है कि हमें गांधी की पगडंडी चौडी कर राजपथ बनना पडे। क्‍योंकि पूंजीवाद की टेक्‍नोलाजी अपनाने से ही साम्‍यवाद में केंद्रीकरण की प्रवृति बढी व वह टूटा। महाभारत को भी वे पढने की सलाह देते हैं,कि मधुलिमये भी उसे पढते थे। उन्‍होंने आलोक धन्‍वा के लिए भी सलाह दी कि वे महाभारत पढें,उनका पराजय बोध घटेगा।
महाभारत की विशेषता है कि वहां न कोई हारता है न जीतता है। सबका विजय-पराजय दोनों से साबका पडता है। यह हिंदू धर्म की विशेषता है कि इसने तमाम अवातारों को सजा दी है। राम-कृष्‍ण-ब्रम्‍हा सब को ब्रम्‍हांड के न्‍याय के आगे सिर झुकाना पडा है।
अंतिम सवाल वरिष्‍ठ पत्रकार हेमंत करते हैं जो अभी अभी वहां आए हैं। वे पूछते हैं कि नये पत्रकारों को तैयार करने के लिए आप क्‍या कर रहे हैं...

उनका जवाब था कि प्रेस इंस्‍टीच्‍यूट के जरिए हमलोग नयी पीढी को पत्रकारिता के मूल्‍यों से परिचित कराने की सोच रहे हैं। नयी पीढी से अक्‍सर मुझे निराशा मिलती है। वे राजनीतिक तिकडमों को प‍त्रकारिता मानते हैं।
एक सवाल और उठता है कि हिंदी में कालमिस्‍ट नहीं हैं...।
उनका मानना है कि आज ज्‍यादातर अखबार अंग्रेजी के कालमिस्‍टों का अनुवाद छापते हैं ऐसे में क्‍या कहा जा सकता है। आज जागरणउजाला जैसे अखबार नकद पैसे देकर लेक्‍चररों से संपादकीय लिखवा ले रहे हैं । वार्ता और भाषा को जोशी जी अंग्रेजी की उपशाखाएं मानते हैं। वे बोलते हैं कि आज हमें भाषाई समाचार सेवा शुरू करने की जरूरत है।

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