tag:blogger.com,1999:blog-32199926748930844562024-03-08T06:54:53.750-08:00हिन्दी विश्व वसुधैव कुटुम्बकम ... मन एव मनुष्यानां ... हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा ... अमरेन्द्र कुमारhttp://www.blogger.com/profile/02023208083585268292noreply@blogger.comBlogger14125tag:blogger.com,1999:blog-3219992674893084456.post-35078915729578230292017-02-17T23:42:00.000-08:002017-02-17T23:42:06.969-08:00वेद-पुराण : मन अन्नमय है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="m_2895756876460107404m_-7456446198294406605gmail-ArticleShloka">
<span style="font-size: x-small;">नरो वै देवानां ग्राम: - ताण्डय ब्राह्मण </span></div>
<div class="m_2895756876460107404m_-7456446198294406605gmail-ArticleShloka">
मनुष्य में सभी देवताअेां का निवास है। <br /> </div>
<div class="m_2895756876460107404m_-7456446198294406605gmail-ArticleShloka">
<span style="font-size: x-small;">अन्नं हि भूतानां ज्येष्ठम्। तस्मात्सर्वोषधमुच्यते जातान्यन्नेन वर्धन्ते। अद्यतति च भूतानि॥
-तैत्तिरीय
</span></div>
<div class="m_2895756876460107404m_-7456446198294406605gmail-ArticlePara">
प्राणियों में अन्न की ही श्रेष्ठता है। इसलिए
उसे सर्वोत्तम औषधि कहते हैं। अन्न से जीव जन्मते और बढ़ते हैं। जीवधारी
अन्न को खाते हैं, पर वह अन्न जीवों को भी खा जाता है।
</div>
<span class="m_2895756876460107404m_-7456446198294406605gmail-m_4687234765204782708m_672973143309832867gmail-st"></span><div class="m_2895756876460107404m_-7456446198294406605gmail-ArticleShloka">
<span style="font-size: x-small;">अन्नमयं हि सोम्य मन। (छान्दोग्य)
</span></div>
<div class="m_2895756876460107404m_-7456446198294406605gmail-ArticlePara">
हे सोम्य! यह मन अन्नमय है।
</div>
<div class="m_2895756876460107404m_-7456446198294406605gmail-ArticlePara">
<span style="font-size: x-small;">अन्नमशितं प्रेधा विधीयते तस्य यः स्थविष्टो धातुस्तपुरोषं भवति यो मध्य मस्तन्मा स योगिष्टास्तन्मव। (छान्दोग्य)
</span></div>
<div class="m_2895756876460107404m_-7456446198294406605gmail-ArticlePara">
जो अन्न खाया जाता है, वह तीनों भागों में विभक्त हो जाता है। स्थूल अंश मल, मध्यम अंश रस-रक्तमाँस तथा सूक्ष्म अंश मन बन जाता है।
</div>
<span class="m_2895756876460107404m_-7456446198294406605gmail-m_4687234765204782708m_672973143309832867gmail-st"><span style="font-size: x-small;">तासां महाभाग्यादे कैकस्या अपि बहूनि नामधेयानि भवन्ति। अपि वा कर्मपृथक्त्वात। निरूक्त, यास्क। </span><br />देवता एक ही हैं, किन्तु उनके नाम अनेक हैं क्यों कि उनके कर्म अलग-अलग हैं।</span></div>
अमरेन्द्र कुमारhttp://www.blogger.com/profile/02023208083585268292noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3219992674893084456.post-15833089172084266262017-02-17T23:35:00.000-08:002017-02-17T23:35:19.851-08:00मोहब्बतें - पॉलीएमॉरस<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
ऐसे लोगों को पॉलीएमॉरस कहा जाता है, जो एक वक़्त में कई मोहब्बतें करते हैं.<br />
चूंकि
ये समाज के बंधे-बंधाए उसूलों को चुनौती देते हैं, इसलिए इन्हें गंदी नज़र
से देखा जाता है. इसका सबसे बुरा असर ऐसे लोगों के बच्चों पर पड़ता है,
जिनके किरदार पर बचपन से ही सवाल उठाए जाने लगते हैं.<br />
हालांकि ऐसे
बच्चों की परवरिश ज़्यादा बेहतर ढंग से होती है, जिनके मां-बाप एक साथ कई
रिश्ते निभाते हैं. बच्चों को अलग-अलग तरह के लोगों का साथ मिलता है. बचपन
से ही उनके अंदर दुनिया के बहुरंगी होने का एहसास होता है और वो ज़्यादा
उदार इंसान बनते हैं.<span style="font-size: x-small;"> </span><br />
<span style="font-size: x-small;">- बीबीसी से साभार</span></div>
अमरेन्द्र कुमारhttp://www.blogger.com/profile/02023208083585268292noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3219992674893084456.post-18112203747139145482017-02-17T23:28:00.000-08:002017-02-17T23:28:33.432-08:00शेर-ओ-सुखन<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
यह जो महंत बैठे हैं दुर्गा के कुंड पर<br />
अवतार बन के कूदेंगे परियों के झुंड पर। - इंशा<br />
<br />
जौक जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला<br />
उनको मैखाने में ले आओ,संवर जाएंगे। - जौक<br />
<br />
आदमीअत और शै है इलम है कुछ और शै<br />
कितना तोते को पढाया पर वो हैवां रहा । - जौक <br />
<br />
मिरे सलीके से , मेरी निभी मुहब्बत में<br />
<span class="">तमाम</span> उम्र , मैं नाकामियों से कम लिया। - मीर <br />
<br />
आशना हों कान क्या इंसान की फरियाद से<br />
शैख को फुरसत नहीं मिलती खुदा की याद से। - चकबस्त<br />
<br />
गया शैतान मारा एक सिजदे के न करने से<br />
अगर लाखों बरस सिजदे में सर मारा तो क्या मारा। - जौक<br />
<br />
क़ैद-ए-हयात-ओ-बंद-ए-गम,असल में दोनो एक हैं<br />
मौत से पहले आदमी गम से नजात पाये क्यों । - ग़ालिब<br />
<br />
चली सिम्ते - गैब से इक हवा कि चमन सुरूर का जल गया<br />
मगर एक शाखे - निहाले - गम जिसे दिल कहें वो हरी रही। - सिराज <br />
<br />
जो और का ऊंचा बोल करे तो उसका बोल भी बाला है<br />
और दे पटके तो उसको भी कोई और पटकने वाला है<br />
बे-जुल्म-वो-खता जिस जालिम ने मजलूम जिब्ह कर डाला है<br />
उस जालिम के भी लोहू का फिर बहता नद्दी नाला है । -' नजीर' अकबराबादी</div>
अमरेन्द्र कुमारhttp://www.blogger.com/profile/02023208083585268292noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3219992674893084456.post-83125718988460084482017-02-17T01:29:00.000-08:002017-02-17T01:31:04.687-08:00स्त्रियां और वेदपाठ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: small;"> जिस स्त्री के वेद पढ़ने पर ही प्रतिबंध लगाया गया, उसके कई हिस्सों की रचयिता वे खुद हैं। वेदों को लेकर सबसे बड़ा वितंडा यह है कि यह अपौरुषेय है, ब्रह्मा की लकीर है, वेदों का अध्ययन करने पर यह भ्रम सबसे पहले दूर होता है। वेद की हर ऋचा को रचनेवाले ऋषि का नाम उसमें दर्ज है और ऋषि एक-दो नहीं पच्चीसों हैं, जिनमें दर्जनों नारियां है। अब कोई एक लेखक हो तो उसका नाम लिखा जाए वेद के लेखक के रूप में, बहुत सारे लेखक होने के कारण ही सबका नाम उनकी रचना के साथ दे दिया गया है।<br /><br />वेद ब्रह्मा की लकीर भी नहीं हैं, इस बारे में तो हमारे पुराने शास्त्रों में ही कई कथन मिल जाएंगे। <b>पराशर-माध्वीय </b>में कहा गया है-<br /><br />श्रुतिश्च शौचमाचार: प्रतिकालं विमिध्यते।<br /><br />नानाधर्मा: प्रावर्तन्ते मानवानां युगे युगे।।<br /><br />मतलब, हर युग में मनुष्यों की श्रुति (वेद), आचार, धर्म आदि बदलते रहते हैं। अब सवाल उठेगा कि वेदों की तब क्या प्रासंगिकता है। जवाब में हम सिर ऊंचा कर कह सकते हैं कि वेद हमारे आदि पुरुषों-स्त्रियों के प्रथमानुभूत सुन्दर विचार हैं, पर वे अन्तिम विचार नहीं हैं। दरअसल, वेद उस समय की उपज हैं, जब विकास क्रम में लगातार नई-नई चीजों की खोज हो रही थी।<br /><br />उनमें जो भी चीजें थीं, जो हमें कुछ देती थीं, वे आगे देवता कहलाने लगीं। ऐसा नहीं था कि केवल लाभदायक चीजें ही देवता कहलाईं। जो भय त्रास देती थीं, वे भी देवता कहलाई, जरा अपने कुछ प्रचलित वैदिक देवताओं के नाम देखें-जंगल, असुर, पशु, अप्सरा, बाघ, बैल, गर्भ, खांसी, योनि, पत्थर, दु:स्वप्न, यक्ष्मा (टीवी), हिरण, भात, पीपल आदि।<br /><br />अब कुछ अप्रचलित ऋषियों के नाम देखें जिन्होंने वैदिक ऋचाए रचीं-<b>मानव, राम, नर, कुत्स, सुतम्भरा, अपाला, सूर्या सावित्री, श्रद्धा कामायनी, यमी, शची पौलमी, ऊर्वशी</b> आदि। वेदों की रचना में स्त्रियों की महत्वपूर्ण भूमिका है, यह उपरोक्त स्त्री ऋषियों की ऋचाओं को पढ़कर जाना जा सकता है।<br /><br />मजेदार बात यह है कि स्त्री ऋषियों ने कई ऐसी ऋचाएं रची हैं जिनमें उन्होंने खुद को ही सर्वशक्तिमान कहा है।<br /><br />कहीं यह स्त्रियों की मजबूत स्थिति ही तो नहीं है कि आगे षड्यंत्रकारी पुरुष वैदिक भाष्यकारों ने उनको वेद पढ़ने की ही मनाही कर दी, जिसकी आज तक वकालत की जाती है। जो स्त्रियां¡ खुद वेद रच सकती हैं, उन्हें उनका पाठ करने से कोई कैसे रोक सकता है? वेद को पढ़ें, तो वे अपने समय की सहज रचना मालूम पड़ती हैं। बातें वहां बड़ी सीधी हैं। उनको समझने के लिए किसी प्रकाण्डता की जरूरत नहीं है, जरूरत उनकी अनुवाद के साथ उपलब्धता की है।<br /><br />वेदों में प्रकृति को लेकर सहज उल्लास है, प्रकृति आज भी हमें उसी तरह उल्ल्सित करती है। वहां छोटी-छोटी कामनाओं के लिए आदमी इन्द्र से याचना करता है। आज तक वह याचक कृति हमारे लिए अभिशाप बनी चली आ रही है। छोटे-छोटे डरों से भयाक्रान्त वैदिक मनुष्य ऋचाओं में उन्हें देवता पुकारता, उनसे मुक्ति की मांग करता है।<br /><br />वह विकास का आरिम्भक दौर था और जानने की प्रक्रिया में यह एक सहज क्रिया थी, विशिष्ट नहीं। जैसे <b>ऋग्वेद </b>के दसवें खंड के 184 वें सूक्त में ऋषि <b>त्वष्टा लिंगोक्ता</b> : देव से प्रार्थना करते हैं-विष्णुयोनि कल्पयतु, त्वष्टा रुपाणि पिंशतु। मतलब, देवता इस स्त्री को प्रजनन योग्य बनावें। आज इस काम के लिए लोग डॉक्टर के पास जाते हैं।<br /><br />क्या उन्हें आज भी किसी ऋषि की खोज करनी चाहिए? इसी तरह सूक्त 165 में कहा गया है, `इस अमंगलकारी कबूतर को हम पूजते हैं। हे विश्वदेव, इसे यहां से दूर करें।´ क्या आज भी हमें कबूतर को अशुभ मान उनसे डरना चाहिए। आज कबूतर हमारे मिन्दरों में छाए रहते हैं और कोई उन्हें अशुभ नहीं मानता है। मतलब वेदों में सारा अटल ब्रह्मवाक्य ही नहीं है।</span></div>
अमरेन्द्र कुमारhttp://www.blogger.com/profile/02023208083585268292noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3219992674893084456.post-11624861104830334462017-02-16T02:52:00.000-08:002017-02-17T01:09:17.525-08:00मनुष्यता और संवेदना का संकट - अच्युतानंद मिश्र <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<h2 class="hP" id=":ms" tabindex="-1">
विलगाव, आधुनिक विज्ञान और मध्यवर्ग</h2>
<b><i>इस क्रूर कमरतोड़ काम का सिर्फ एक फायदा था– कि इसने उसे संवेदनशून्य बना
दिया .धीरे धीरे वह जड़ होती गयी-वह हमेशा चुप रहने लगी .शाम को वह ,ओना और
युर्गिस तीनों साथ घर लौटते थे लेकिन प्रायः कोई एक शब्द भी नहीं बोलता था
.ओना को भी चुप रहने की आदत पड़ती जा रही थी,वही ओना जो एक समय चिड़िया की
तरह गाती रहती थी .वह बेहद कमज़ोर और बीमार थी और अक्सर उसमें इतनी ही ताकत
बची रहती थी कि मुश्किल से खुद को घर तक घसीट कर ले जा सके. घर पहुंचकर जो
कुछ भी मिलता उसे वे चुपचाप खा लेते और इसके बाद क्योंकि अपने दुःख के
अलावा बात करने को और कुछ नहीं होता था ,वे बिस्तर में घुसकर गहरी नींद में
सो जाते और करवट भी बदले बिना तब तक सोये रहते जब तक उठकर मोमबत्ती की
रौशनी में कपडे बदलने और वापस मशीनों की गुलामी करने के लिए जाने का समय हो
जाता . उनकी इन्द्रियां इस कदर संज्ञा शून्य हो गयी थीं कि अब उन्हें भूख
से भी ज्यादा तकलीफ नहीं होती थी : खाना कम पड़ जाने पर सिर्फ बच्चे ही
झीकते रहते थे . (149-150)</i></b><br />
यह अंश अमेरिकी उपन्यासकार <b>अप्टन सिंक्लेयर</b>
के उपन्यास जंगल से उद्धृत है. बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों का यह यथार्थ
पूंजीवादी विकास और मजदूर वर्ग के विलगाव के चरम को हमारे सामने रखता है.
क्षरित हो रही मनुष्यता की इस मार्मिक दास्तान को जब मैं पढता हूँ तो जो
प्रश्न मेरे जेहन् में आता है वह ये कि तकरीबन एक सदी बाद आज इस मनुष्यता
के समक्ष हम कहाँ खड़े हैं . विलगाव की इस प्रक्रिया ने हमारे भौतिक के साथ
साथ आत्मिक संसार को किस हद तक विनष्ट किया है ?<br />
मनुष्य की अवधारणा को
एक सदी में पूरी तरह बदल दिया गया है. मनुष्य के विषय में सोचते हुए लगता
है कि कई तरह के भ्रम मेरे भीतर मेरे बाहर लगातार मेरे मानस को निर्मित कर
रहे हैं. इन भ्रमों ने न सिर्फ हमारे वस्तु जगत बल्कि हमारे विषय जगत को भी
बदल दिया है. अब मनुष्य के विषय में सोचना <b>कामायनी</b> के मनु की तरह शून्य
में एकटक देखते रहना नहीं रह गया है. पिछली एक सदी ने मनुष्य की सृजनशील
चेतना को ही बदलने का प्रयत्न किया है. <br />
मनुष्य के विकासक्रम को कल तक
एक तार्किक प्रक्रिया के तहत समझा जाता था. उसपर जब -जब संकट आये तर्क की
परिधि का विकास किया जाता था. इस विस्तृत और समय सापेक्ष तर्क से मनुष्य की
अवधारणा को पकड़ने की कोशिश अगर संभव न भी हो तो वह संभव सी प्रतीत होती
थी. मार्क्सवाद के मूल में जो तार्किकता नज़र आती है, वह यूरोपीय नवजागरण के
परिणामस्वरूप विकसित हुयी. वह सामाजिक सांस्कृतिक चेतना का ही विकसित और
परिष्कृत रूप थी . उन्नीसवीं सदी का <b>मार्क्सवाद </b>वस्तुतः उसी तार्किक संगति
से पैदा हुआ था, जिसका आरम्भ हम अठारहवीं सदी के अंतिम वर्षों में कांट के
यहाँ देखते हैं. कांट ने क्रिटिक ऑफ़ प्योर रीज़न के माध्यम से आदर्शवाद और
अनुभववाद के बीच मौजूद गहरी खाई को पार किया और उसके ऐतिहासिक संयोंग की
अंतर्कथा निर्मित की थी. जिसके पश्चात शेलिंग, फिक्टे से होती हुयी हीगेल
तक हम इस तार्किक चेतना के शीर्ष को देखते हैं . <br />
<b>हीगेल</b> ने
द्वंद्वात्मकता की अवधारणा के माध्यम से इस तार्किकता को न सिर्फ नया आयाम
दिया बल्कि उसको नए क्षितिज तक ले जाने भी संभावना भी निर्मित की.
मार्क्सवाद के उद्भव को इन्हीं परिस्थितियों ने अनुकूल बनाया. यूरोपीय
नवजागरण की एक धारा अगर पूंजीवादी वर्चस्व की और चली गयी तो यह भी स्वीकार
किया जाना चाहिए कि उसकी दूसरी और बेहद सशक्त धारा सतत् आलोचनात्मक बने
रहने की चेतना भी विकसित करती थी और जिसकी परिणति कांट से होते हुए हीगेल
तक जर्मन आदर्शवाद के रूप में आकार लेती है. <br />
हीगेल तर्क से
द्वंद्वात्मकता के विकास तक की ऐतिहासिक यात्रा तय करते हैं. इस कड़ी में
मार्क्स का महत्व इसलिए सर्वोपरी हो जाता है, क्योंकि वे इस पूरी बहस में
समाज के भौतिक अस्तित्व को व्यापक अर्थों में स्वीकारते हैं. इसी संदर्भ
में उनका यह कथन - दार्शनिकों ने अब तक दुनिया की व्याख्या की है, सवाल उसे
बदलने का है- समूचे जर्मन आदर्शवाद को और यूरोपीय नवजागरण को नया आयाम
देती है. यहीं से यूरोपीय नवजागरण की उस धारा को, जो पूंजीवाद की और चली
जाती है, चुनौती देने का तर्क विकसित होता है. <br />
दरअसल <b>मार्क्स</b> जर्मन
आदर्शवाद के उस बेहद सुसज्जित और आलिशान मकान में वास्तविक मनुष्यों को
सामाजिक प्राणी के रूप में प्रवेश दिलाकर उसे सही अर्थों में घर बनाते हैं.
उन्नीसवीं सदी में मार्क्स का यही ऐतिहासिक संघर्ष मार्क्सवाद के रूप में
समूची दुनिया को बदलने के प्रण के साथ आरम्भ होता है. लेकिन बीसवीं सदी में
एक हद तक राजनीतिक मार्क्सवादियों ने इस बात को भुला दिया कि मार्क्स
यूरोपीय नवजागरण और उसकी सतत् आलोचनात्मक प्रवृत्ति का परिणाम थे. उन्हें
इतिहास ने ही बनाया था. यानि एक तरह से कहें तो मार्क्सवाद में जो मौजूद
तार्किकता है जो सतत् आलोचनात्मक बने रहने की गतिशीलता है, जो भौतिक दुनिया
की व्याख्या के क्रम में द्वंद्वात्मकता की चेतना है वह सब यूरोपीय
नवजागरण की परम्परा का ही विकास है. यहाँ तक कि हम देख सकते हैं कि मार्क्स
के जो राजनीतिक अर्थशास्त्र के सिद्धांत हैं वे इस तार्किकता के बगैर संभव
नहीं थे . <br />
इस तरह मार्क्स उस समग्र को पकड़ने का प्रयत्न करते हैं
जिसके माध्यम से मनुष्य और समाज की आन्तरिकता को नष्ट करने का प्रयत्न उस
दौर में किया जा रहा था . मार्क्स यह दिखाने में सफल होते हैं कि यह जो
मानव समाज है और जहाँ एक लम्बी ऐतिहासिक प्रक्रिया के तहत यह तर्क विकसित
हुआ है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है -उसे नष्ट किया जा रहा है. इस तरह
पूंजीवाद मानव समाज की इस आन्तरिक संगति को नष्ट करता है. समाज की चेतना के
विरोध में व्यक्ति की अवधारणा का विकास भी इधर की ही परिघटना है .
सामाजिकता के सारे तर्कों को उलटकर आत्मविकास का तर्क विकसित किया गया
लेकिन ऐसा करने के लिए यह जरुरी था कि मनुष्य की सतत् तार्किकता को नष्ट
किया जाये. सतत् तार्किकता से अभिप्राय उस तार्किकता से है जिसे मनुष्य ने
लम्बे ऐतिहासिक विकास क्रम में अर्जित किया है. जो मनुष्य के आधुनिक और
सामाजिक होने के द्वंद्व में हर दौर में अभिव्यक्त होती है . जहाँ सामाजिक
होने की प्रक्रिया में उसने अपने अस्तित्व को पहचाना है और परम्पराबोध के
रूप में उसे मानवीय गरिमा का विषय बनाया है. <br />
बीसवीं सदी में
मार्क्सवाद के खिलाफ कोई लड़ाई तभी संभव हो सकती थी, जब मार्क्सवाद के भीतर
मौजूद इस ऐतिहासिकता और परम्परा को नष्ट किया जा सके. यूरोपीय नवजागरण से
मार्क्स और मार्क्सवाद तक की यात्रा के पदचिन्हों को मिटाया जा सके. <br />
बीसवीं
सदी में इस समूची तार्किकता को नष्ट करने के लिए और मार्क्सवाद की समग्रता
को नष्ट करने के लिए ,मार्क्सवाद को उसकी परम्परा से अलगाया गया. ऐसा
सिर्फ पूंजीवादियों ने नहीं किया बल्कि बीसवीं सदी के उन तथाकथित राजनीतिक
मार्क्सवादियों ने भी किया जिन्होंने मार्क्सवाद को मुक्ति की जगह वर्चस्व
का एक नया सिद्धांत बना दिया. और यहीं बीसवीं सदी में उस तार्किकता का दामन
छोड़ दिया गया . ऐसा करने के लिए राज्य की समूची अवधारणा को ताकत में बदला
गया. यह न सिर्फ पूंजीवादी देशों में हुआ बल्कि मार्क्सवादी निजामों के
अधीन देशों में भी हुआ . फूको इसी विकास को ताकत का नाम देते हैं. वे इसे
महज़ राज्य तक सीमित नहीं मानते हैं बल्कि वे उसे 19 वी सदी में विकसित
संस्थाओं के चरित्र से जोड़कर देखते हैं और यहीं वे ज्ञान -ताकत की
परिकल्पना को सामने रखते हैं . फूको के लिए ज्ञान का वर्चस्व में बदलना
आधुनिकता की परिणति है. वस्तुतः आधुनिकता की परिकल्पना में जिस सतत् आलोचना
की परिपाटी मौजूद थी दरअसल उसे नष्ट कर ही ऐसा किया गया. वर्चस्व की
अवधारणा का विकास तार्किकता की परिणति नहीं है, बल्कि उस तार्किकता से
पलायन है जिसे लम्बे संघर्ष के बाद मानव सभ्यता ने अर्जित किया था .<br />
संस्थाओं
के माध्यम से मनुष्य के मस्तिष्क की क्षमता से बहुत आगे की जटिल परिकल्पना
रची गयी. जिसके सामने मनुष्य का मस्तिष्क एक असहाय खिलौना नज़र आता है.
ध्यान दें तो राजनीतिक अर्थशास्त्र की परिकल्पना रचकर मार्क्स न सिर्फ एक
समग्रता को सामने लाते हैं बल्कि तार्किकता के उस अस्त्र की ताकत से भी
वाकिफ कराते हैं जिसके तहत पूंजीवादी वर्चस्व की धार कम की जा सके .<br />
बीसवीं
सदी के आरम्भ में ज्ञान की प्रक्रिया को सूक्ष्म बनाने की कोशिशों के तहत
मानव मस्तिष्क के कार्य करने की प्रक्रिया की व्याख्या की गयी. सबसे पहले
भाषा के माध्यम से मनुष्य के मस्तिष्क की प्रक्रियाओं को उसके चेतन अवचेतन
के द्वंद्व को व्याख्यायित किया गया . फिर कंप्यूटर के निर्माण के तहत मानव
मस्तिष्क को ही चुनौती दे दी गयी . यह एक बहुत बड़ी परिघटना थी . मानव
मस्तिष्क अंतर्निहित उस ऐतिहासिक तार्किकता को विनष्ट करने के लिए यांत्रिक
तार्किकता की परिकल्पना रची गयी और सामाजिक जीवन में उस यांत्रिक
तार्किकता के माध्यम से वर्चस्व को संस्थाओं के विकास क्रम में अंतर्भूत
किया गया. <br />
उदहारण के लिए अगर हम अर्थशास्त्र के प्रश्न को लें तो पाते
हैं कि समूची उत्पादन प्रक्रिया को एक अव्याख्यायित जटिलता में बदल दिया
गया. उत्पादन उत्पादक सम्बन्धों के बीच मौजूद सारे अन्तःसूत्रों को अमूर्त
बना दिया गया . <br />
जर्मन आदर्शवाद के परिणामस्वरूप बुद्धिवाद की परिणति
उन्नीसवीं सदी में मार्क्सवाद के रूप में हुयी .हम यह कह सकते हैं कि
मार्क्स ने ऐतिहासिक भौतिकवाद और वर्ग संघर्ष की जो परिकल्पना प्रस्तुत की
उसने बुद्धिवाद और अनुभववाद के बीच के ऐतिहासिक संघर्ष को एक हद तक समाप्त
कर दिया . दुनिया को देखने और उसे व्याख्यायित करने के मूल में दुनिया को
बदलने की चेतना केंद्रीय हो गयी . मार्क्स ने वर्गों के खानों के भीतर
मनुष्य की श्रेणीगत व्याख्या प्रस्तुत की . इसी व्याख्या में संघर्ष की
चेतना भी अंतर्निहित थी .मार्क्स का ऐतिहासिक महत्व इस अर्थ में था कि
उन्होंने ज्ञान के सैद्धांतिक और व्यवहारिक पहलुओं के बीच समन्वय स्थापित
करने का प्रयत्न किया .मार्क्स की वर्ग की अवधारणा में एक तरह का
सामान्यीकरण भी मौजूद था और मार्क्स इसके खतरों से वाकिफ भी थे , इसीलिए
मार्क्स ने इस अवधारणा के मध्य एक जगह छोड़ी, जिसे हम विलगाव (एलिनियेशन) के
रूप में चिन्हित करते हैं. <br />
वर्गीय भेदभाव के परिणामस्वरूप एलिनियेशन
मनुष्य के नैतिक पतन की पराकाष्ठा थी. एलिनियेशन के पश्चात् मनुष्य एक ऐसे
स्तर पर पहुंचा हुआ मनुष्य था जिसे भाषा या परिभाषा में पकड़ना कठिन था .
मार्क्स के लिए चेतना के दोनों स्तर यानि बाह्य चेतना और आन्तरिक चेतना
दोनों के स्तर पर जारी संघर्ष ही वर्ग संघर्ष की प्रक्रिया को मूर्त करते
हैं . एलिनियेशन को चुनौती देने के लिए मार्क्स मनुष्य की आन्तरिक शक्ति और
नैतिक बोध दोनों को जागृत करने पर बल देते हैं. आन्तरिक शक्ति और नैतिक
बोध से मार्क्स का तात्पर्य मनुष्य होने की ऐतिहासिक प्रक्रिया से था. हर
मनुष्य अपनी चेतना में इतिहास और परम्परा के द्वंद्व को अंतर्भूत करता है .
यही प्रक्रिया उसे वर्तमान के प्रति नैतिक और आत्मिक दृढ़ता से भरती है.<br />
मार्क्स
के अनुसार यह जो भौतिक दुनिया है, इसमें जो भेदभाव हैं , अमानवीय
स्थितियां हैं, क्रूरताएँ हैं, उन सबसे निकलकर आनेवाली मानसिक संवेदनाएँ
मजदूर और श्रमिक वर्ग को स्व की चेतना से विरक्त कर देती है. यही विरक्ति
एलिनियेशन कहलाती है. एलिनियेशन के सापेक्ष हमारे सामने हमेशा एक ऐसी
दुनिया होती है, जहाँ मानवीय सम्बन्धों की लौकिक अभिव्यक्ति होती है. इस
लौकिक दुनिया के सापेक्ष ही हम एक एलिनियेशन की पहचान कर सकते हैं .एक
सापेक्ष दुनिया का मानचित्र निर्मित होता है. मार्क्स की इस परिकल्पना को
सहज भाषा में इस तरह कहा जा सकता है कि पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया का
सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग मजदूर आत्मसत्ता से विरक्त होता जाता है .यह आत्म
विरक्ति उसकी वर्ग चेतना को भी विस्मृत कर देती है .मार्क्स के लिए
एलिनियेशन की प्रक्रिया का स्पष्ट सम्बन्ध पूंजीवाद से है . पूंजीवादी
उत्पादन प्रक्रिया से है . <br />
पूंजीवाद से पूर्व श्रम की अनिवार्य
उपस्थिति प्रकृति और मनुष्य के संघर्ष में होती थी .मनुष्य प्रकृति को
बदलता था और इस प्रक्रिया में अपनी अन्तः प्रकृति को भी बदलता था . वह अपनी
सुप्त शक्तियों को जागृत करता था और उन्हें उन्हें आहिस्ते-आहिस्ते
अनुकूलित करता जाता था. यही वह प्रक्रिया थी जिसके तहत श्रम के माध्यम से
व्यक्ति समाज की संरचना निर्मित करता था .कहने का अर्थ यह है कि श्रम की
रचनात्मकता के माध्यम से ही वह व्यक्ति का सामाजिक रूपांतरण कर पाता था .<br />
एलिनियेशन
की प्रक्रिया श्रम के साथ मनुष्य के रचनात्मक सम्बन्ध को काट देती है . इस
काटने की प्रक्रिया में वह श्रम के ऐतिहासिक रूपांतरण की प्रक्रिया से भी
कट जाता है और इस तरह उसका इतिहासबोध नष्ट होता जाता है .जब बाजार में
श्रमिक का श्रम एक बिकाऊ माल बन जाता है तो एलिनियेशन की प्रक्रिया आरम्भ
होती है. एलिनियेशन की प्रक्रिया से गुजर रहे श्रमिक के भीतर संवेदनहीनता
का प्रादुर्भाव होने लगता है. मनुष्य ने लम्बे ऐतिहासिक प्रक्रिया के दौरान
संवेदना के धरातल को निर्मित किया है .बगैर संवेदना के मनुष्य के संघर्ष
का क्या मोल रह जायेगा ? क्या इस तरह किसी किस्म के वर्ग चेतना के निर्मित
होने की संभावना बचती है?<br />
फर्ज़ करें कि हम संवेदनहीनों की दुनिया बना
दें उसमें वर्ग संघर्ष का भविष्य क्या होगा . तो क्या मार्क्स जिस क्रमिकता
में “अब तक का ज्ञात इतिहास.......” पद का इस्तेमाल मैनेफेस्टो में करते
हैं, वह किसी ऐसे मुकाम पर पहुँच गया है जहाँ गहरी खाई है. अंततः संघर्ष
मनुष्यता ही करेगी. विजय उसी ने पाना है . ये बातें उत्तरआधुनिकता के पक्ष
में सुनाई पड़ती हैं जिसके प्रति दुनिया भर के अधिकांस मार्क्सवादियों की
राय नकारने की है . सोवियत विघटन के वक्त इसे एक रणनीति के तौर पर स्वीकार
भी किया गया ,लेकिन आज तकरीबन पचीस वर्षों बाद यह पुनर्विचार की मांग करता
है.<br />
अगर कोई इतिहास के एक ऐसे अंधे मोड़ पर जन्म लेता है जब उसके इर्द
गिर्द की अधिकांश दुनिया एलिनियेटेड हो चुकी हो तो उसका संवेदनात्मक विकास
कैसा होगा . वह किस तरह का समाज बनाएगा? <b>मार्क्स</b> के इस पद में कि “
........ <b> इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है”</b> वह किस तरह यकीन करेगा.
भविष्य में यह चुनौती हमे मिल सकती है . तो क्या यह संभव है कि सारा का
सारा समाज ही विलगाव की चपेट में आ जाये? क्या यह किसी नये किस्म के
विलगाव की प्रक्रिया होगी . मार्क्स के एलिनियेशन की प्रक्रिया के मूल में
है उत्पादक –उत्पादन सम्बन्ध. एक समाज जरुरत से अधिक उपभोग करता है .दूसरा
समाज अपने पूरे श्रम से अपनी सामान्य जरूरतों को भी पूरा नहीं कर पाता. ऐसे
में दूसरा समाज बचे रहने के लिए श्रम की गति को बढ़ाता है ,जिसकी कीमत उसे
संवेदनात्मक रूप से जड़ होकर चुकानी पड़ती है. इस तरह वह एलिनियेट होता जाता
है. मनुष्य के रूप में बचे रहने के लिए ,वह मानवीय संवेदनाओं से धीरे धीरे
अलग होता जाता है. वह खुद को विस्मृत कर एक मशीन की तरह उत्पादन की
प्रक्रिया में शामिल हो जाता है. अंततः स्व की चेतना से कट जाता है. यह
प्रक्रिया एक रैखिकीय नहीं होती श्रमिकों के आन्दोलन समय समय पर इस गतिरोध
को तोड़तें भी हैं . सबकुछ इस बात पर निर्भर करता है कि एलिनियेशन का स्तर
क्या है .एक निश्चित सीमा से आगे निकल गये समाज को वापस नहीं लाया जा सकता .
हालाँकि इसका निर्धारण भी समाज ही करेगा . एलिनियेशन के इस स्तर तक
पहुँचने का उपाय है उत्पादन की अबाध गति. ज्यों ज्यों उत्पादन की गति बढ़ती
जाएगी एलिनियेशन का दायरा भी बढ़ता जायेगा .गति को बढ़ाने की जिम्मेदारी
विज्ञान की है. विज्ञान का उद्देश्य सिर्फ पूंजीपतियों के लिए अनुकूल गति
का अगला स्तर विकसित करना है .<br />
जब गति अकल्पनीय रूप से बढ़ जाएगी समाज का
एक हिस्सा पूरी तरह एलिनियेशन की चपेट में आ जायेगा. क्या यही वह बिंदु
है, जहाँ द्वंद्वात्मकता से होती हुयी सापेक्षवाद तक आई दुनिया पक्ष विहीन
नज़र आएगी. अंततः रंगों की पहचान तो बहुत से रंगों के होने से ही होती है.
अगर द्वंद्वात्मकता 19 वीं सदी का यथार्थ था सापेक्षवाद 20 वीं सदी का तो
फिर आगे क्या?<br />
<b>क्या हम एक ऐसे मोड़ पर आ गये हैं , जहाँ मनुष्य की
संवेदना एक अभूतपूर्व संकट की गिरफ्त में नज़र आती है?</b> यह संकट पहली बार आया
हो, ऐसा नहीं है .जब-जब सभ्यता एक संक्रमण काल से गुजरी होगी यह सवाल उभरा
होगा. लेकिन हर बार मनुष्य ने इससे अपने को उबार लिया होगा . इतिहास ने
इसे युग परिवर्तन की तरह दर्ज किया गया होगा .तो क्या यह भी किसी युग
परिवर्तन की आहट है. लेकिन जैविक इकाई के रूप में मनुष्य में आये इस
परिवर्तन को इस तरह के सामान्यीकरण के हवाले कर निश्चिन्त तो नहीं बैठा जा
सकता. आखिर हम यह जानते हैं कि मार्क्स की यह व्याख्या कि पूंजीवाद अपने
बोझ तले नष्ट हो जायेगा -वर्तमान के संदर्भ गलत साबित हुयी .ऐसा क्यों हुआ
?क्या मार्क्स ने कभी इस तरह की कोई बात कही जिससे यह अनुमान लगे कि उनके
अनुसार पूंजीवाद की अवधि कितनी होगी ? अगर पूंजीवाद अपनी अवधि को बढ़ा दे तो
क्या मार्क्स के आकलन को गलत साबित नहीं किया जा सकता ? लम्बी अवधि के
पूंजीवाद के परिणामस्वरूप समाज और मनुष्यता की जो क्षति होगी उसकी भरपाई
किस तरह की जा सकेगी? पूंजीवाद ने पचास के दशक के बाद स्वयं को उबारा. इस
बात की तरफ कम लोगो का ध्यान गया कि पूंजीवाद जब समाज में मौजूद सामाजिकता
की चेतना को नष्ट करता है तो लम्बी अवधि के पूंजीवाद के माध्यम से सामाजिक
संघर्ष को किस हद तक कुंद किया जा सकता है ? और किसी देश काल में पूंजीवाद
सामाजिक संवेदना को जिस हद तक नष्ट करेगा, उसकी भरपाई कैसे संभव होगी ? <br />
मार्क्सवाद
के मूल में यह धारणा है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है जबकि पूंजीवाद
मनुष्य को इकाई के रूप में देखता है . लम्बी अवधि के पूंजीवाद के
परिणामस्वरूप समाज की मूल चेतना यानि उसकी सामाजिक संवेदना नष्ट होती जाती
है. ऐसे में उन देशों के उदाहरण हमारे पास हैं जहाँ पूंजीवाद का सबसे
आक्रामक रूप मौजूद है. हम जानते है वहां मनुष्य एक इकाई का रूप ले चुका है
और उसकी सामाजिक संवेदना व्यापक तौर पर विकृत हो चुकी है . इस अर्थ में
सामाजिक संघर्ष में उसकी भागीदारी किस हद तक होगी, इसका अंदाज़ा लगाया जा
सकता है. यहाँ इस प्रश्न का भी जवाब मिलता है कि क्यों रूस और चीन जैसे गैर
पूंजीवाद देशों में ही सफल मार्क्सवादी क्रांति की शुरुआत हुयी. वह किसी
औद्योगिक दृष्टि से अतिविकसित राष्ट्र मसलन ब्रिटेन या फ्रांस में नहीं
हुयी तो इसका बड़ा कारण यह था कि वहां के लोगों की सामाजिक संवेदना बड़े
पैमाने पर विकृत हो चुकी है और पूंजीवाद का प्रसार उन्हें अंतिम छोर तक ले
गया यानी एलिनियेशन तक. यह स्थिति कमोबेश 1950 तक की है . हम जानते हैं आज
की स्थितियां इस विश्लेषण से काफी आगे निकल चुकी हैं .कहने का तातपर्य यह
कि लम्बी अवधि का पूंजीवाद ही उसे इच्छा मृत्यु तक ले जा रहा है .<br />
पूंजीवाद
जिसे अपने लिए एक विशाल गड्ढा खोदना था ताकि उसमें उसे दफन किया जा सके ,
वह उसमें दफन नहीं हुआ . मार्क्सवाद के कुछ प्रमुख सिद्धांतो को बीसवीं सदी
के अंतिम दशकों ने बहस से बाहर कर दिया या अप्रासंगिक साबित कर दिया- मसलन
वर्ग और इतिहास चेतना. इसे महज़ निराशा कहकर नकारने के आरंभिक वर्षों से हम
काफी दूर निकल आये हैं .ऐसे में यह जरुरी लगता है कि इनपर गंभीरता से
विचार होना चाहिए ,बगैर इस शंका के भी कि पारम्परिक मार्क्सवादियों की
दृष्टि में यह एक गैर मार्क्सवादी विश्लेषण ही होगा. यूरोप के बहुत से
मार्क्सवादी चिंतकों ने इस तरह का जोखिम 50 के दशक में ही उठाया था.
मार्क्सवाद और पूंजीवाद के संदर्भ में किये गये उनके विश्लेषण एक हद तक सही
साबित हुए.<br />
पूंजीवाद का आरम्भ एक नई परिघटना के साथ हुआ . यह परिघटना
थी विज्ञान के युग का आरम्भ . औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप विज्ञान के
नये युग का विकास हुआ .इस नये युग ने उत्पादन की गति को पूरी तरह अपने
नियंत्रण में ले लिया जिसके परिणामस्वरूप एक वर्चस्ववादी युग का विकास हुआ .
साम्राज्यवाद के मूल में वर्चस्व की इस चेतना की बड़ी भूमिका थी.
साम्राज्यवाद से संघर्ष में तीसरी दुनिया के देशों में एक आत्मचेतना का
विकास हुआ. अगर हम साम्राज्यवादी वर्चस्व से इस विज्ञान की चेतना को निकल
दें तो वह उस गन्ने की लुगदी की तरह रह जायेगा जिसका रस निचोड़ लिया गया है.
यही वजह है कि साम्राज्यवादी वर्चस्व का विकास 19 वीं सदी में ही हो पाता
है. आधुनिक विज्ञान के परिणामस्वरूप साम्राज्यवाद और फिर साम्राज्यवादी लूट
की बन्दरबाँट की प्रक्रिया जिसके फलस्वरूप दो विश्व युद्ध .इस समूची
प्रक्रिया के दौरान जो सबसे महत्वपूर्ण चीज़ निकलकर सामने आती है वह है
तीसरी दुनिया का उद्भव .क्या यह स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए कि जब तीसरी
दुनिया में 19 वीं सदी के शोषण की प्रक्रिया संभव नहीं रह गयी तो यह
अनिवार्य हो गया कि साम्राज्यवाद के इस खूनी खेल को बंद कर दिया जाए ,ताकि
पूंजीवाद को मरने से बचाया जा सके . इसलिए यह जरुरी हो गया था कि समापन की
प्रक्रिया एक धमाके के साथ हो ताकि आने वाली सभ्यता पर इसकी अमिट छाप छोड़ी
जा सके. यह संभव होता है परमाणु बम के गिराए जाने से .1945 में जापान पर
अमेरिका द्वारा गिराए गये परमाणु बमों से आधुनिक विज्ञान और 19 वीं सदी के
साम्राज्यवादी युग का अंत होता है .<br />
मार्क्स तार्किकता के विकास को
अध्ययन का विषय बनाते हैं. उनके अनुसार 16 वीं - 17 वीं सदी के दौरान समाज
बनाम व्यक्ति की अवधारणा विकसित की गयी . धीरे-धीरे व्यक्तिगत हितों को
सर्वोपरि बना दिया गया .सामाजिकता की अवधारणा को कमजोर किया गया . इस तरह
सामाजिक तार्किकता (social rationality) के स्थान पर व्यक्तिगत तार्किकता
के मूल्यों को स्थापित किया गया (individual rationality ). ऐसा करने के
लिए मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन, उसकी आशा आकांक्षा का महिमा मंडन किया गया.
इसी व्यक्तिगत तार्किकता के गर्भ से तकनीकी तार्किकता (technological
rationality) का जन्म होता है.<br />
व्यक्तिगत तार्किकता से तकनीकी तार्किकता
के विकास की प्रक्रियाओं पर<b> फ्रैंकफर्ट स्कूल</b> के चिंतकों ने गंभीरता से
विचार किया है. इस संदर्भ में जर्मन –अमेरिकन चिन्तक <b>हर्बर्ट मार्कुज</b> का
नाम महतवपूर्ण है .मार्क्स का मानना था कि आलोचनात्मक चिंतन के विकास से ही
द्वंद्वात्मक चिंतन का विकास होता है . वन डायमेंशनल मैन के हवाले से
मार्कुज द्वंद्वात्मकता की अवधारणा को स्पष्ट करते हैं और तकनीकी वर्चस्व
के निर्माण की प्रक्रिया को उद्घाटित करते हैं . मार्क्स के अनुसार
द्वंद्वात्मक चिंतन के माध्यम से स्थापित रूपों एवं विचारों की आलोचना की
जा सकती है. गैर आलोचनात्मक चिंतन का विकास स्थापित अवधारणाओं एवं विचारों
को परिपुष्ट करने से होता है . समाज में जो मूल्य और अवधारणाएं प्रचलन में आ
चुकी होती हैं गैर आलोचनात्मक चिंतन उसे बनाये रखने का तर्क विकसित करती
हैं. वे उसे स्थिर ,शुद्ध बनाने का उपक्रम रचती हैं. संस्थाओं ,राज्य की
मशीनरी ,न्यायालयों द्वारा उसे दीर्घकालीन बनाया जाता है .इसके विपरीत
आलोचनात्मक चिंतन वैकल्पिक चिंतन की ओर उन्मुख होती है , वे समाज में
हाशिये के मूल्यों की वकालत करती हैं. वहीं से आलोचनात्मक विवेक का विकास
होता है . मार्क्स इसे विपरीत चिंतन (negative thinking ) कहते हैं जो समाज
में स्थापित मूल्यों को नकारता है और यथार्थ को उच्चतर संभावनाओं के
परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयत्न करता है . उत्पादन की प्रक्रिया से
मनुष्य के चिंतन को जोड़ते हुए मार्कुज लिखते हैं “ वस्तुएं जिनका उद्देश्य
जीवन को सुखी और समृद्ध बनाना है वे ही जीवन मूल्यों को नियंत्रित करने
लगती हैं और इस तरह मनुष्य की चेतना पूर्णतः वस्तु उत्पादन की प्रक्रिया के
अधीन हो जाती है”(reason and revolution- pg 273) . मार्कुज की यह बेहद
महत्वपूर्ण उक्ति है इससे हम समझ सकते हैं कि किस तरह उत्पादन की प्रक्रिया
ने श्रमिकों के विलगाव को उन्नीसवीं सदी में संभव बनाया और उसमे विज्ञान
की भूमिका किस हद तक महत्वपूर्ण थी .मनुष्य का अस्तित्व तभी होगा जब वह
स्वतंत्र होगा. स्वतंत्रता की अवधारणा वैयक्तिक नहीं होगी बल्कि वह सामूहिक
ही होगी , इसलिए मनुष्य की आत्म अभिव्यक्ति का अर्थ है विचार और अस्तित्व
के बीच एकता . कहने का तात्पर्य है कि जहाँ पूजीवादी विलगाव की प्रक्रिया
मनुष्य को विषय बनाकर उसे व्यक्ति में रूपांतरित करती है वहीं कोशिश यह की
जानी चाहिए कि मनुष्य में अंतर्गुम्फित उन एकता के सूत्रों को चिन्हित किया
जाये जहाँ अस्तित्व और विचार आपस में मिलते हैं. <br />
19 वीं सदी के
विज्ञान ने समाज में वैयक्तिगत तार्किकता के मूल्यों को तकनीक की तार्किकता
के मूल्यों में बदलने में बड़ी भूमिका निभाई . जिसके परिणामस्वरुप हम देखते
हैं कि उत्पादन की गति अबाध रूप से बढ़ी . इस गति के साथ श्रमिक वर्ग का
संतुलन बैठना असंभव था. ऐसे में वह अपनी चेतना से कटता गया और अन्य होता
गया.<br />
<br />
1945 के बाद पूंजीवाद का पुनरुद्धार तभी संभव था, जब उसके
निशाने पर मध्यवर्ग आये. यह नया युग विज्ञान के आधुनिक युग का दूसरा चरण
है. विज्ञान के इस दूसरे चरण के लक्ष्य में मध्यवर्ग को रखा गया . यानि
विज्ञान के हवाले से मध्यवर्ग के विलगाव की भूमिका सम्पन्न की जानी थी.
पहले चरण की तरह इसमें राष्ट्र राज्य के विभाजन को प्रमुखता नहीं दी गयी.
इसका एकमात्र उद्देश्य था मनुष्य की चेतना पर वर्चस्व. इसके लिए जरुरी था
कि मनुष्य के भौतिक अस्तित्व को नाकारा जाये . इसे संभव करने के लिए जरुरी
था कि परम्परा बोध को नष्ट किया जाये. यानि मनुष्य के मस्तिष्क में मौजूद
एवं क्रियाशील ऐतिहासिक चेतना को नष्ट कर दिया जाये .हम जानते हैं कि तर्क
के विकास के साथ मनुष्य अपनी चेतना के निर्माण में सामाजिक निर्माण की
प्रक्रिया से गुजर रहा था . दूसरे चरण के विज्ञान ने इसे नकारने के लिए
यानि मानवीय चेतना को नकारने के लिए वास्तविक दुनिया के सामानांतर छद्म
दुनिया की अवधारणा रची . वास्तविक और गतिशील दुनिया के विरोध में छद्म और
स्थूल दुनिया की परिकल्पना. <br />
हमारे मस्तिष्क में <b>चेतन और अवचेतन </b>दो
हिस्से होते हैं. हम जानते हैं कि दोनों ही विभाग अंततः वास्तविक दुनिया को
ही प्रतिबिंबित करते हैं .हमारा अवचेतन भी इसी वास्तविक दुनिया के
साक्षात्कार से निर्मित होता है. बौद्रिला तक जिस अवचेतन की व्याख्या को हम
देखते हैं वह भी अंततः इस वास्तविक दुनिया की ही व्याख्या है ,क्योंकि
अवचेतन की जैविकता भी वास्तविक दुनिया का ही प्रतिबिम्ब है. <b>फ्रायड </b>के
स्वप्न जगत के विश्लेषण को हम काल्पनिक मनुष्यता या अव्याख्यायित मनुष्य से
जोड़कर नहीं देखते. यानि मार्क्स से लेकर फ्रायड तक और औद्योगिक क्रांति से
आधुनिक विज्ञान तक की अवधारणा के केंद्र में यह क्लासिक पूंजीवाद है.
पिछली शताब्दी के मध्य में इस क्लासिक पूंजीवाद का युग समाप्त होता है.
विलगाव का संकट मध्यवर्ग की ओर प्रस्थान करता है .सबसे पहले विज्ञान में
खासकर भौतिक और जैविक विज्ञान में भौतिक और जैविक को विस्थापित किया जाता
है .भौतिक विज्ञान अमूर्त की व्याख्या करने लगता है. ऐसा करते हुए बार बार
यह दिखाया जाता है कि इसके मूल में कोई राजनीतिक वैचारिक मूल्य या उद्देश्य
नहीं है .विज्ञान को शुद्ध विज्ञान बनाने पर बल दिया जाता है. यह पिछले
पचास वर्ष की ही परिघटना है, जब हम पाते हैं कि हमारा वैज्ञानिक हमे इस
ग्रह, इस धरती ,इस समाज ,इस मनुष्यता से पूरी तरह विरक्त नज़र आता है. इस
विरक्ति के मूल में ही एक ऐसी संकल्पना के निर्माण की प्रवृत्ति कार्य करती
है जो बहुत तेज़ी से मध्यवर्ग के एलिनियेशन को अंजाम देती है .<br />
सवाल यह
है कि यह जो नया विज्ञान है, इसमें जो अवचेतन की अभिव्यक्ति है वह किसी
वास्तविक जगत को प्रतिबिंबित नहीं करती. ऐसे में हम इसे कैसे व्याख्यायित
करेंगे. किस अर्थ में यह हमारे उस पुराने अवचेतन से भिन्न है ? <br />
मूल
प्रश्न इसी अवचेतन को व्याख्यायित करने का है .यह उस पुराने अवचेतन से इस
अर्थ में भिन्न है कि इसके केंद्र में इस भौतिक दुनिया से उद्भूत संवेदना
नहीं है . इस अर्थ में यह एक सौन्दर्यशास्त्रीय प्रश्न भी खड़ा करती है. इसे
कुछ उदाहरणों से स्पष्ट किया जा सकता है . हम जानते हैं कि मनुष्य ने अपने
ऐतिहासिक विकास के क्रम में विपरीत लिंगों के प्रति आकर्षण की सहज चेतना
अर्जित की है. अगर एक पुरुष एक स्त्री को देखता है उसके मन में उसके प्रति
सहज आकर्षण पैदा होता है .चेतना में पहले से मौजूद स्त्री की छवि इस छवि से
टकराती है . संवेदनात्मक प्रतिक्रिया होती है .चेतना के दो खाने बनते हैं.
चेतन और अवचेतन .किसी क्षण जब वह पुरुष संवेदित होता है तब उसके अवचेतन
में मौजूद यह स्त्री छवि किसी तीसरे रूप में प्रकट होती है . इसी अर्थ में
अवचेतन को हम अब तक व्याख्यायित करते रहे हैं .परन्तु जब इन्टरनेट पर या
मोबाइल स्क्रीन पर जब हम किसी स्त्री छवि से बावस्ता होते हैं तो उसके
परिणामस्वरूप भी उसी तरह एक चेतन और अवचेतन निर्मित होता है . यह जो नया
अवचेतन है जिसके मूल में मोबाइल या इन्टरनेट पर अंकित स्त्री छवि है वह उस
जैविक स्त्री- छवि से निर्मित अवचेतन से किस रूप में भिन्न होगा .क्या इसकी
संवेदनात्मक प्रतिक्रिया भी उससे भिन्न नहीं होगी? इसे कौन नियंत्रित कर
रहा है? कहने का तात्पर्य यह कि छद्म दुनिया से निर्मित अवचेतन को हम कैसे
देखे ?इसे नियंत्रित करने में क्या हमारा ऐतिहासिक बोध कहीं सक्रिय हो पाता
है . हम पाते हैं कि इस अवचेतन के समक्ष हमारा मस्तिष्क अक्षम नज़र आता है.
इसे कोई और नियंत्रित कर रहा है . जिसके सामने हम कठपुतली की तरह नाच रहे
हैं .<br />
इसी प्रकार संख्याओं की व्यवस्था को देखना भी दिलचस्प होगा.
संख्याओं के विकासक्रम में मनुष्य के विकासक्रम का बोध भी अंतर्निहित है.
इसी अर्थ में तार्किकता के विकास को देखा जा सकता है और साथ ही संवेदना के
विकसित होते रूपाकार को भी समझा जा सकता है .संख्याओं को नियंत्रित करने
उसे व्याख्यायित करने की मानवीय क्षमता का भी विकास होता रहा .उत्पादन के
विकास क्रम को जानने समझने में संख्याओं द्वारा निर्मित तर्कशक्ति की
भूमिका भी बेहद महत्वपूर्ण है . औद्योगिक क्रांति ने भौतिक उत्पादन की गति
को बढ़ा दिया. इस गति के साथ जब श्रमिकों का तालमेल असंभव होने लगा तो वे
अपनी ही भौतिक चेतना से कटने लगे .अन्य होने की प्रक्रिया यही से आरम्भ
होती थी .एक समय तक शीत युद्ध में बमों की संख्या के आधार पर युद्ध लड़ा जा
रहा था .क्योंकि संख्याओं द्वारा निर्मित तार्किकता एक वर्चस्व को निर्मित
करती थी . इस तर्क से मनुष्य की संवेदना एक जुड़ाव निर्मित करती थी. इस अर्थ
में संवेदना भी मात्रात्मक होती थी. लेकिन आज कोई वर्चस्व बमों की संख्या
के आधार पर निर्मित नहीं किया जा सकता. हम जानते हैं कि आज एक बटन के दबने
से समूची दुनिया तबाह हो सकती है ! ऐसे में संख्याओं द्वारा निर्मित
तार्किकता और तद्जनित संवेदनात्मकता का क्या अर्थ रह गया है ?<br />
<br />
हमारे
परिचितों क एक दायरा होता था. उसमे 50-100 लोगों की संख्या होती थी. उनसे
संवेदनात्मक जुड़ाव हमारे जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती थी . हम इन
परिचितों को उनके नाम स्थान और चेहरे से जानते थे . इनसे भौतिक जुड़ाव जिस
तरह की संवेदना निर्मित करती थी, उसका हमारी चेतना पर एक निश्चित प्रभाव
होता था . इन्हीं सम्बन्धों के विस्तार में, द्वंद्व में हम अपनी सामाजिकता
को पहचानते थे .फेसबुक में मित्रों की संख्या पांच हज़ार हो सकती है , किसी
मोबाइल में दस हज़ार लोगों के नाम सुरक्षित रखे जा सकते हैं. क्षण भर की
देरी पर हम उनसे संवाद कर सकते हैं. क्या इस संवाद की प्रक्रिया में हमारा
जैविक अस्तित्व उसी तरह सक्रिय होगा, जैसे कि वह पहले था . फिर इस पांच
हज़ार की संख्या के साथ हमारे मस्तिष्क का तालमेल किस तरह का होगा? किस
किस्म की तार्किक संवेदना हमारे मस्तिष्क में निर्मित होगी? इस छद्म
सामाजिकता से निर्मित सामाजिक चेतना किस तरह का सामाजिक बोध निर्मित करेगी?
क्या यह वही चेतन-अवचेतन निर्मित करेगी. इस छद्म से निर्मित होने वाले
अवचेतन को हम कैसे देखे? क्या जो नया मनुष्य बनेगा जो अपनी आत्म चेतना से,
अपनी पारम्परिक संवेदना से विरक्त होगा वह किस किस्म का समाज निर्मित करेगा
? क्या वह स्थायी रूप से अधिक क्रूर, अधिक यांत्रिक, अधिक अमानवीय नहीं
होगा ? <br />
इस नये विज्ञान ने संख्याओं की मानवीय परिकल्पना को पार पा लिया
है. तो क्या यह वह स्थिति नहीं आ रही है जब मस्तिष्क तर्क के अक्षय श्रोत
के रूप में और संवेदना के अजस्र प्रवाह के रूप में अर्थहीन हो जायेगा. क्या
ऐसे में उसपर नियंत्रण करना आसान नहीं हो जायेगा?<br />
अगर किसी घोटाले मे
अनुमानित राशी है- एक लाख पिचासी हज़ार पांच सौ करोड़ तो इस अनुमानित राशी से
क्या हमारा मस्तिष्क कोई तालमेल बिठा सकता है? क्या यह राशी कोई तार्किकता
निर्मित करती है ? अगर इस राशी में तो चार-पांच हज़ार करोड़ घटा बढ़ा दिया
जाये कोई फर्क पड़ेगा ? <b>संख्याओं का एक महाजाल</b> हमारे समक्ष है . इसे
व्याख्यायित करना अनुमानित करना और इसके आधार पर एक तार्किक संवेदना
निर्मित करना अब हमारे मस्तिष्क के लिए असंभव होता जा रहा है. क्या यह एक
नये किस्म की विरक्ति नहीं है? एक नये तरह का एलिनियेशन नहीं है? <br />
आज से
पंद्रह वर्ष पहले तक संगीत को कैसेट्स के माध्यम से सुना जाता था. एक
कैसेट् में तक़रीबन आठ-दस गाने होते थे. आप उसे अपनी मर्ज़ी से आगे पीछे करके
सुन सकते थे . उसके साथ मस्तिष्क एक तालमेल निर्मित करता था . हम उन गीतों
के गीतकार संगीतकार और गायक के नाम याद रख सकते थे. फुर्सत के क्षणों में
हम उन्हें दुहराते थे . संवेदना का अजस्र प्रवाह बहने लगता था. एक हद तक हम
नोस्टैल्जिक होते थे .रूमानियत और नोस्टाल्जिया के बीच झूलते हम खुद को
अधिक भरा, अधिक परिपूर्ण महसूस करते थे . उत्पादन की तकनीक के विकास ने
हमें एक डिजिटल दुनिया के समक्ष ला दिया .अब एक पेन ड्राइव में एक हज़ार से
भी अधिक गाने भरे जा सकते हैं. हमारा मस्तिष्क इस संख्या के साथ कैसे
तालमेल बिठाये. हम एक साथ इनको सुन नहीं सकते .क्षण भर की देरी में हम
पाचवें से पांच सौवें गाने तक पहुँच सकते हैं. यानि यांत्रिकरण की इस
प्रक्रिया के समक्ष मस्तिष्क की असहायता स्पष्ट है. एक असहाय मस्तिष्क अधिक
नियंत्रण के काबिल होगा .<br />
आधुनिक विज्ञान ने इसकी भूमिका रची है. इसके
मूल में एक क्षद्म दुनिया के निर्माण की प्रक्रिया कार्यरत हैं. हमारे
समक्ष एक अभूतपूर्व गति और मात्रा का संसार रख दिया गया है. इस सूचना
प्राद्योगिकी के निशाने पर मध्यवर्ग है. कोशिश भी यही है कि मध्यवर्ग की
परिवर्तन कामी चेतना को शिकार बनाया जाए. उसकी संवेदना का वस्तुकरण किया
जाये . मध्यवर्ग के इस एलिनियेशन के पश्चात् भविष्य की दुनिया कैसी होगी ,
इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है .<br />
इस क्षद्म वस्तुपरकता का विकल्प
क्या है? क्या हम इस विलगाव से बच सकते हैं? इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढने
होंगे. लेकिन इससे पहले यह जरुरी है कि हम इन प्रश्नों को समझे .<br />
आने
वाले दिन अधिक क्रूरता और नृशंसता से भरे दिन होंगे. इस क्रूरता और नृशंसता
का विकल्प हमे ही ढूँढना होगा. सामजिक चेतना के रूपाकारों के विस्तार के
लिए एक अधिक आत्मीय और ऊष्मा से भरी मनुष्यता के निर्माण के लिए एक सतत्
गतिशील मानवीय गति की तलाश करनी होगी. इसके लिए जरुरी है कि उस <b>मुक्तिबोधीय</b>
भविष्यवाणी को जिसमे चेतावनी भी अंतर्निहित है -अपने दिल में बिठाये.<br />
<b><i>वर्तमान समाज चल नहीं सकता <br />पूंजी से जुड़ा हुआ ह्रदय बदल नहीं सकता<br />स्वातंत्र्य व्यक्ति का वादी<br />छल नहीं सकता मुक्ति के मन को <br />जन को .</i></b></div>
अमरेन्द्र कुमारhttp://www.blogger.com/profile/02023208083585268292noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3219992674893084456.post-43462607307869214252017-02-16T01:01:00.000-08:002017-02-16T01:01:25.396-08:00वसंत उस बरस - अच्युतानंद मिश्र<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
हमने अपने वसंत को चूमा<br />और खो गये<br />कुछ पत्तियां थी निष्पाप<br />टंगी रह गयी <br />कुछ पतंगे <br />उड़ते और मर जाते थे <br /><br />एक कांच का आइना<br />टूट गया<br />वह सड़क पर बेतहाशा<br />दौड़ती रही<br /><br />सबकुछ इतना स्वाभाविक था <br />कि हवा चली और दुप्पटा लहरा गया <br /><br />शहर से दूर <br />एक जोर की लहर उठी<br />सीटी बजाती बस दूर चली गयी <br />बस की खिड़की से कोई रुमाल लहराता रहा <br />स्मृतियाँ धूल बनकर उड़ने लगी हर ओर<br /><br />उस बरस वसंत <br />ने पागल कर दिया था <br /><br />फिर जीवन में आते रहे <br />शीत और ग्रीष्म अविराम।</div>
अमरेन्द्र कुमारhttp://www.blogger.com/profile/02023208083585268292noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3219992674893084456.post-62809268947571680262017-02-15T03:25:00.000-08:002017-02-15T03:25:16.894-08:00हिंदी-उर्दू : बहन भाषाएं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="ltr">
<div class="gmail_default" style="font-family: arial,helvetica,sans-serif;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: small;">हिंदी-उूर्द जैसी बहन
भाषाओं को सांप्रदायिकता की जमीन से देखने वालों को इसे लेकर लोगों में दरार डालने
में सफलता नहीं मिली और उच्च्तम न्यायालय ने भी पच्चीस साल पहले उत्तर प्रदेश
सरकार द्वारा उर्दू को प्रदेश की दूसरी आधिकारिक भाषा का दर्जा दिए जाने को उचित
ठहराया। देखा जाए तो कुछ लोगों और संगठनों द्वारा जनता से जुडे तमाम मसलों को
राजनीतिक लाभ-हानि के हिसाब से अवसरवाद की छडी से पीटना उन्हें किसी भी मुल्क को
आगे बढने से रोकनेवाली भूमिका ही प्रदान करता है।</span><span lang="HI" style="font-size: small;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: small;">उच्चतम न्यायालय ने उत्तर प्रदेश में उर्दू को सरकारी कामकाज
की दूसरी भाषा घोषित करने के फैसले पर</span><span style="font-size: small;"> <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">गुरुवार</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">को अपनी स्वीकृति की मुहर लगाते कहा है
कि इस देश के भाषाई कानून</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">कठोर नहीं बल्कि भाषाई पंथनिरपेक्षता का
लक्ष्य हासिल करने के लिए उदार</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">हैं। </span></span>
<br />
<span style="font-size: small;">1989 <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">में उत्तर प्रदेश
सरकार ने यूपी राजभाषा</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">कानून में संशोधन कर उर्दू को प्रदेश की
दूसरी आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">था। उत्तर प्रदेश हिंदी</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">साहित्य सम्मेलन
उर्दू को प्रदेश में उर्दू को दूसरी आधिकारिक</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">भाषा का दर्जा मिलना रास नहीं आ रहा ।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";"> सम्मेलन के वकील श्याम दीवान का तर्क था कि</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">संविधान के अनुच्छेद </span>345
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">के प्रावधानों को बारीकी से समझा जाए तो
हिंदी के</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">साथ
किसी दूसरी भाषा को आधिकारिक भाषा का दर्जा नहीं दिया जा सकता। प्रदेश सरकार ने
सिर्फ अल्पसंख्यकों को तुष्ट करने के लिए ऐसा किया है। पर प्रधान न्यायाधीश
आरएम लोढ़ा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">पीठ ने अपील पर व्यवस्था देते कहा कि</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">संविधान के भाषाओं से
संबंधित अनुच्छेद </span>345 <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">में
ऐसा कुछ नहीं है जो हिंदी के अतिरिक्त राज्य में एक या अधिक भाषाओं को</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">दूसरी भाषा घोषित
करने से रोकता है। </span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">शीर्ष
अदालत ने इस संबंध में बिहार</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">हरियाणा</span>,
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">झारखण्ड</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">मध्य प्रदेश</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">उत्तराखंड</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">और दिल्ली जैसे कई राज्य विधानमंडलों का
उदाहरण देते कहा कि इन राज्यों ने हिन्दी के अतिरिक्त दूसरी भाषाओं</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">को भी सरकारी कामकाज
की भाषा के रूप में मान्यता दी है। दिल्ली में</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">हिन्दी के साथ ही पंजाबी और उर्दू को
दूसरी सरकारी कामकाज की भाषा के रूप</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">में मान्यता प्राप्त है। पीठ ने यहां तक
कहा कि अगर कोई भाषाई संगठन</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">राष्ट्रपति के पास जाकर किसी भाषा को
राजभाषा के दर्जे में शामिल कराने की</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">मांग करता है तो राष्ट्रपति चाहें तो
सीधे राज्य सरकार को उस भाषा को</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">राजभाषा में शामिल करने का निर्देश दे
सकते हैं।</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">इन
प्रावधानों को व्यापक रूप में देखा जाना</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif";">चाहिए न कि संर्कीण रूप में। </span><span lang="HI"> </span></span><br />
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: small;">भाषा को लेकर उटपटांग दलीलें देकर आम
जन को विभाजित करने वालों को अपनी समझ साफ करने की जरूरत है। हिन्दुस्तान के
ख्यातिप्राप्त शायर <b>रघुपति सहाय </b></span><span style="font-family: "mangal" , "serif"; font-size: small;"><b>‘ <span lang="HI">फिराक</span>
’</b><span lang="HI"> अपनी पुस्तक </span>‘<span lang="HI">उर्दू भाषा और साहित्य</span>’
<span lang="HI">में स्पष्ट लिखते हैं –</span>‘ <span lang="HI">ऐसे बीसो हजार उदाहरण
दिए जा सकते हैं जिससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि हिंदी शब्दों को एक विशेष ढंग
से बोलने या लिखने का नाम उूर्द है। यह ढंग या शैली ही उर्दू भाषा की आधार-िशला
है।</span>’ <span lang="HI">वे यह भी लिखते हैं कि – </span>‘ <span lang="HI">यह
समझना भ्रम होगा कि हिंदी शब्दों में केवल अरबी और फारसी शब्दों को मिला देने से
उर्दू बनती है। शत प्रतिशत हिंदी शब्दों से भी बनी हुई उर्दू गद्य और कविता की
किताबों मिलती हैं।</span>’ <span lang="HI">इसलिए भाषा को किसी जात या जमात से
जोडकर सतही ढंग से देखे जाने से आगे जाकर हमें उसकी जनमत में पसरी जडों को पहचानना
होगा।6-9-14</span></span></div>
</div>
</div>
</div>
अमरेन्द्र कुमारhttp://www.blogger.com/profile/02023208083585268292noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3219992674893084456.post-69422035240171174122017-02-14T23:47:00.000-08:002017-02-14T23:47:13.270-08:00सर्जन - बरीस पास्तरनाक<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">उचित नहीं है शोहरत पा लेना ।</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">समारोहित होना प्रशंसा की बात नहीं ।</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">ज़रूरत नहीं है अपनी रचनाओं को कोषगत कर रखने की</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">और न ज़रूरत है रखने की उन्हें मेहराबी गर्भगृहों में ।</span><br />
</div>
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">सर्जन वह है जिसमें तुम अपना सब कुछ करते हो उत्सर्ग</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">शोर व सरापा ठीक नहीं और न छा जाना दूसरों पर ग्रहण बनकर
ही</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">तुम्हारे होने का जब कोई अर्थ नहीं लगता</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">तब कितनी लज्जाजनक है चर्चा हर व्यक्ति के अधरों पर ।</span><br />
<br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">चेष्टा मत करो झूठे अधिकार वाली ज़िंदगी के लिए</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">बल्कि अपने कार्य-कलापों को ऐसे ढालो</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">कि दूर-दूर की सीमाओं तक तुम्हें प्यार मिले</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">और सुन सको तुम आनेवालों वर्षों में होने वाली अपनी
चर्चा ।</span><br />
<br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">जीवन में रिक्तता रखो</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">रचनाओं में नहीं</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">और अपने अस्तित्त्व और अपनी होनी के</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">सम्पूर्ण अध्याय को</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">सम्पूर्ण खंड को</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">रेखांकित कर रखने में मत हिचकिचाओ ।</span><br />
<br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">अवकाश ग्रहण कर अनदेखे में</span> <br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">कोशिश करो प्रच्छन्न रखने की अपने विकास को</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">जैसे तड़के सुबह</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">शिशिर की कुहेलिका छ्पा कर रखती है</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">अपने अंक में सपनाते ग्रामांचल को ।</span><br />
<br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">तुम्हारे जीवंत चरण-चिह्नों पर</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">दूसरे जाएँगे क़दम-ब-क़दम चलकर</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">किंतु अपनी पराजय से स्वयं तुम</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">अपनी विजय अलग मत दरसाओ ।</span><br />
<br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">और एक क्षण के लिए कभी भी अपने जज़्बात को</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">मत छलो और न बहाना ही करो छलने का ।</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">किंतु ज़िंदा रहो यही असलियत है</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">जीवंत रहो</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">जीवंत और तपित
रहो अंत तक ।</span><br />
<b><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">अँग्रेज़ी भाषा से अनुवाद</span> : </b><b><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">अनुरंजन प्रसाद सिंह</span></b></div>
अमरेन्द्र कुमारhttp://www.blogger.com/profile/02023208083585268292noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3219992674893084456.post-78667327863985643392017-02-14T02:02:00.001-08:002017-02-14T02:02:52.119-08:00वैदिक ऋचाएं और उनके अर्थ <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">ऋषि</span><span lang="AR-SA">: (</span>Rishi)
:- <span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">गाथिनो</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">विश्वामित्रः</span><br />
<span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">देवता</span><span lang="AR-SA"> (</span>Devataa) :- <span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">विश्वेदेवा</span><span lang="AR-SA">:</span><br />
<span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">छन्द</span><span lang="AR-SA">: (</span>Chhand) :- <span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">स्वराडनुष्टुप्</span><br />
<span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">स्वर</span><span lang="AR-SA">: (</span>Swar) :- <span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">गान्धारः</span><br />
<span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">ये</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">वृक्णासो</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">अधि</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">क्षमि</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">निमितासो</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">यतस्रुचः</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">।</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">ते</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">नो</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">व्यन्तु</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">वार्यं</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">देवत्रा</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">क्षेत्रसाधसः</span><span lang="AR-SA">
</span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">॥</span><span lang="HI" style="font-family: mangal,serif; font-size: 10pt; line-height: 115%;"> मंडल 3 मंत्र 7 सूक्त 8</span><br /><span lang="HI" style="font-family: mangal,serif; font-size: 10pt; line-height: 115%;">ऋग्वेद।</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: mangal,serif; font-size: 10pt; line-height: 115%;">अविद्या से पृथक् सत्य ज्ञानवाले जिन्होंने यज्ञ साधन नियत किया
और पृथिवी पर वर्त्तमान हैं वे विद्वानों में हमारे स्वीकार के योग्य
ज्ञान को प्राप्त हों ॥७॥</span><span lang="HI" style="font-family: mangal,serif; font-size: 10pt; line-height: 115%;"></span><br /><span lang="HI" style="font-family: mangal,serif; font-size: 10pt; line-height: 115%;">जैसे कुल्हाड़े से काटे हुए वृक्ष फिर नहीं
जमते वैसे ही विद्या से नष्ट हुई अविद्या नहीं बढ़ती ॥७॥</span><br />
<span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">ऋषि</span><span lang="AR-SA">: (</span>Rishi)
:- <span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">उत्कीलः</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">कात्यः</span><br />
<span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">देवता</span><span lang="AR-SA"> (</span>Devataa) :- <span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">अग्निः</span><br />
<span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">छन्द</span><span lang="AR-SA">: (</span>Chhand) :- <span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">निचृत्त्रिष्टुप्</span><br />
<span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">स्वर</span><span lang="AR-SA">: (</span>Swar) :- <span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">धैवतः</span><br />
<span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">प्र</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">पीपय</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">वृषभ</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">जिन्व</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">वाजानग्ने</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">त्वं</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">रोदसी</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">नः</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">सुदोघे</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">।</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">देवेभिर्देव</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">सुरुचा</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">रुचानो</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">मा</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">नो</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">मर्तस्य</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">दुर्मतिः</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">परि</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">ष्ठात्</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">॥</span><span lang="HI" style="font-family: mangal,serif; font-size: 10pt; line-height: 115%;">मंडल 3 मंत्र 6 सूक्त 15</span><span lang="HI" style="font-family: mangal,serif; font-size: 10pt; line-height: 115%;"> ऋग्वेद।</span><br /><span lang="HI" style="font-family: mangal,serif;">हे शरीर और आत्मा के बल से युक्त
अग्नि के सदृश तेजस्वी ! आप जैसे कामनाओं की उत्तम प्रकार
पूर्त्तिकारक अन्तरिक्ष पृथिवी को सूर्य्य प्रकाशित और सुख युक्त करता
है वैसे विज्ञानयुक्त हम लोगों को संपत्तियुक्त कीजिये। हे
उत्तम गुण प्रदाता आप विद्वानों के साथ उत्तम तेज से
प्रीतिसहित प्रीतियुक्त हुए हम लोगों को आनन्दित
कीजिये जिससे कि हम लोगों के लिये मनुष्य सम्बन्धिनी
दुष्ट बुद्धि नहीं सब ओर से स्थित हो ॥६॥ </span><br /><span lang="HI" style="font-family: mangal,serif;">जिस देश में विद्वान् लोग प्रीति से सबलोगों
को बढ़ाने की इच्छा करते हैं और दुष्ट बुद्धि का नाश करते हैं वहां सबलोग वृद्धि
को प्राप्त विज्ञानरूप धनवाले होते हैं ॥६॥</span><br />
<span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">ऋषि</span><span lang="AR-SA">: (</span>Rishi)
:- <span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">कतो</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">वैश्वामित्रः</span><br />
<span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">देवता</span><span lang="AR-SA"> (</span>Devataa) :- <span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">अग्निः</span><br />
<span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">छन्द</span><span lang="AR-SA">: (</span>Chhand) :- <span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">निचृत्पङ्क्ति</span><br />
<span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">स्वर</span><span lang="AR-SA">: (</span>Swar) :- <span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">पञ्चमः</span><br />
<span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">त्रीण्यायूंषि</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">तव</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">जातवेदस्तिस्र</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">आजानीरुषसस्ते</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">अग्ने</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">।</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">ताभिर्देवानामवो</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">यक्षि</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">विद्वानथा</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">भव</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">यजमानाय</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">शं</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">योः</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">॥</span><span lang="HI" style="font-family: mangal,serif; font-size: 10pt; line-height: 115%;"> मंडल 3 मंत्र 3 सूक्त 17</span><span lang="HI" style="font-family: mangal,serif; font-size: 10pt; line-height: 115%;"> ऋग्वेद।</span><br /><span lang="HI" style="font-family: mangal,serif;">हे सम्पूर्ण उत्पन्न पदार्थ के
ज्ञाता अग्नि के सदृश तेजस्वी और सत्य असत्य के ज्ञाता पुरुष
! आप जैसे आपका जाना अग्नि किसी पदार्थ में अग्नि का संयोग करनेवाले
के कल्याणकारक होता है वैसे आपके जो तीन प्रकार के शरीर
आत्मा मन के सुखकारक जीवन और जैसे अग्नि के सदृश तेजस्वी तीन सबओर से प्रसिद्ध प्रकाशकारक समय वैसे ही संयोगकारक वा
भेदक आप संप्राप्त होते उन वेलाओं से पदार्थों की वा
विद्वानों की रक्षा आदि कीजिये और कल्याण करनेवाले भी हूजिये ॥३॥ </span><br /><span lang="HI" style="font-family: mangal,serif;">जो मनुष्य बहुत काल पर्य्यन्त ब्रह्मचर्य्य
नियत भोजन और विहार से आयु बढ़ाने की इच्छा करें तो त्रिगुण अर्थात् तीनसौ वर्ष
तक जीवन हो सकता है ॥३॥</span><br />
<span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">ऋषि</span><span lang="AR-SA">: (</span>Rishi)
:- <span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">गाथी</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">कौशिकः</span><br />
<span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">देवता</span><span lang="AR-SA"> (</span>Devataa) :- <span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">पुरीष्या</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">अग्नयः</span><br />
<span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">छन्द</span><span lang="AR-SA">: (</span>Chhand) :- <span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">त्रिष्टुप्</span><br />
<span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">स्वर</span><span lang="AR-SA">: (</span>Swar) :- <span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">धैवतः</span><br />
<span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">अयं</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">सो</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">अग्निर्यस्मिन्त्सोममिन्द्रः</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">सुतं</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">दधे</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">जठरे</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">वावशानः</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">।</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">सहस्रिणं</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">वाजमत्यं</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">न</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">सप्तिं</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">ससवान्त्सन्त्स्तूयसे</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">जातवेदः</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">॥ </span><span lang="HI" style="font-family: mangal,serif; font-size: 10pt; line-height: 115%;">मंडल 3 मंत्र 1 सूक्त 22</span><span lang="HI" style="font-family: mangal,serif; font-size: 10pt; line-height: 115%;"> ऋग्वेद।</span><br /><span lang="HI" style="font-family: mangal,serif;">हे उत्तम विद्याधारी ! जिसमें यह बिजुली असङ्ख्य पराक्रमयुक्त वेग
और व्यापक शीघ्र चलनेवाले वायु के तुल्य अग्निनामक अश्व
को धारण करता है उसमें अत्यन्त कामना करनेवाला जीवात्मा आप पेट की अग्नि में उत्पन्न पदार्थों के समूह
के धारणकर्त्ता आप विभागकारक होकर स्तुति करने योग्य
हो ॥१॥ </span><br />
हार्स पावर --<span lang="HI" style="font-family: mangal,serif;"> जो मनुष्य विद्या से अग्नि को चलावें तो यह
अग्नि हज़ारों घोड़ों के बल को धारण करता है ॥१॥</span><br />
<span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">ऋषि</span><span lang="AR-SA">: (</span>Rishi)
:- <span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">गाथिनो</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">विश्वामित्रः</span>, <span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">ऐषीरथीः</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">कुशिको</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">वा</span><br />
<span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">देवता</span><span lang="AR-SA"> (</span>Devataa) :- <span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">इन्द्र</span><span lang="AR-SA">:</span><br />
<span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">छन्द</span><span lang="AR-SA">: (</span>Chhand) :- <span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">भुरिक्पङ्क्ति</span><br />
<span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">स्वर</span><span lang="AR-SA">: (</span>Swar) :- <span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">पञ्चमः</span><br />
<span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">विदद्यदी</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">सरमा</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">रुग्णमद्रेर्महि</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">पाथः</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">पूर्व्यं</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">सध्र्यक्कः</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">।</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">अग्रं</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">नयत्सुपद्यक्षराणामच्छा</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">रवं</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">प्रथमा</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">जानती</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">गात्</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: mangal;">॥ </span><span lang="HI" style="font-family: mangal,serif; font-size: 10pt; line-height: 115%;">मंडल 3 मंत्र 6 सूक्त 31 </span><span lang="HI" style="font-family: mangal,serif; font-size: 10pt; line-height: 115%;">ऋग्वेद।</span><br /><span lang="HI" style="font-family: mangal,serif;">हे बुद्धिमती स्त्री ! जो उत्तम
पादों वाली आप चलनेवाले पदार्थों के नापनेवाली हुई मेघ के
एक साथ प्रकट प्राचीन जनों में किये गये बड़े अन्न वा जल को प्राप्त होवें रोगों से घिरे हुए को औषध
से रोगरहित करती अक्षरों के श्रेष्ठ शब्द को उत्तम प्रकार प्राप्त करती है पहिली जानती हुई प्राप्त होवें तो सम्पूर्ण सुख को प्राप्त होवें ॥६॥ </span><br />
स्त्री वैज्ञानिक --- <span lang="HI" style="font-family: mangal,serif;">जो स्त्री बिजुली के सदृश विद्याओं में
व्याप्त संस्कार और उपस्कार अर्थात् उद्योग आदि कर्म्मों में चतुर उत्तम रीति से
बोलने तथा नम्र स्वभाव रखनेवाली होवें वह सृष्टि के सदृश सुख देनेवाली होती हैं ॥६॥</span></div>
अमरेन्द्र कुमारhttp://www.blogger.com/profile/02023208083585268292noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3219992674893084456.post-37900929113398830162017-02-14T01:44:00.000-08:002017-02-14T01:44:37.665-08:00मृत्यु गीत - गाब्रियला मिस्त्राल<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="ltr">
<div class="gmail_default" style="font-family: arial,helvetica,sans-serif;">
<span style="font-size: x-small;"><b>1945 में नोबेल से सम्मानित चीले की इस्पाहानी कवयित्री गाब्रियला मिस्त्राल की कविताओं से गुजरना एक आत्मीय अनुभव रहा। <i>अनुपस्थिति का देश तथा अन्य कविताएं</i> नामक इस संकलन की कविताओं का अनुवाद गंगाप्रसाद विमल,विनोद शर्मा और आलोक लाहड ने किया है। प्रस्तुत है उनकी एक कविता ...</b></span><br />
<br />
<span style="font-size: small;">गिन गिन कर ले जाने वाली सनातन मृत्यु</span><br />
<span style="font-size: small;">यह दक्ष हाथों वाली मृत्यु</span><br />
<span style="font-size: small;">जब निकले राह पर</span><br />
<span style="font-size: small;">न मिले मेरे बच्चे को</span><br />
<span style="font-size: small;"><br /></span>
<span style="font-size: small;">सूंधती है नवजातों को</span><br />
<span style="font-size: small;">और लेती है गंध उनके दूध की</span><br />
<span style="font-size: small;">पाये वह नमक और आटे का ढेर</span><br />
<span style="font-size: small;">न मिले उसे मेरा दूध</span><br />
<span style="font-size: small;"><br /></span>
<span style="font-size: small;">वह दुनिया की पूतना</span><br />
<span style="font-size: small;">जीवित लोगों को समुद्र तटों</span><br />
<span style="font-size: small;">खौफनाक रास्तों पर विमोहित करने वाली</span><br />
<span style="font-size: small;">इस अबोध को न मिले</span><br />
<span style="font-size: small;"><br /></span>
<span style="font-size: small;">नामकरण के साथ</span><br />
<span style="font-size: small;">विकसता है वह फूल सा</span><br />
<span style="font-size: small;">भूल जाए उसे अचूक याद वाली मौत</span><br />
<span style="font-size: small;">खो दे अपनी गणना।</span><br />
<span style="font-size: small;"><br /></span>
<span style="font-size: small;">कर दें उसे पागल</span><br />
<span style="font-size: small;">नमक,रेत और हवाएं</span><br />
<span style="font-size: small;">और दिग्भ्रमित भटके</span><br />
<span style="font-size: small;">वह पगली मौत।</span><br />
<span style="font-size: small;"><br /></span>
<span style="font-size: small;">कर दें उसे भ्रमित माएं और बच्चे</span><br />
<span style="font-size: small;">मछलियों की मानिन्द</span><br />
<span style="font-size: small;">और जब मेरा वक्त आए</span><br />
<span style="font-size: small;">वह मुझे निपट अकेली खाए।</span></div>
</div>
</div>
अमरेन्द्र कुमारhttp://www.blogger.com/profile/02023208083585268292noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3219992674893084456.post-41060552412482119892017-02-13T03:23:00.000-08:002017-02-13T03:27:09.911-08:00अंग्रेजी का अनुकरण कर अखबार कभी अच्छे नहीं हो सकते - प्रभाष जोशी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<h3 class="post-title entry-title" itemprop="name">
<span style="font-size: x-small;"><i>
- प्रभाष जोशी से कुमार मुकुल की बातचीत - 1997 प्रभात खबर
</i></span></h3>
<div dir="ltr" style="text-align: left;">
राष्ट्रीय पुनरनिर्माण के मुद्दों पर बहस में भाग लेने आए लोगों में वरिष्ठ पत्रकार <b>प्रभाष जोशी</b> भी अन्य वक्ताओं के साथ अनुग्रहनारायण संस्थान की अतिथिशाला में ठहरे थे। सुबह नौ बजे मैं पहूंचा तो कमरे में <i>आसा</i>
के एकाध लडके थे। बेड पर उनकी चौडे पाढ वाली धोती खोलकर रखी थी। उसी पर एक
कलफ चढा खादी का कुरता भी। तभी बाथरूम का दरवाजा खुला,जोशी जी ने पुकारा
कि यार,यहां तो पानी ही नहीं आ रहा, बुलबुले फूट रहे हैं। तभी <b>सुरेन्द्र किशोर</b>
आए। उन्होंने आसा के व्यवस्थापकों को सलाह दी कि आगे से जोशी जी को कम
से कम ऐसी जगह ठहराएं जहां फोन हो। एक कर्मचारी नीचे से बाल्टी में गर्म
पानी लेकर आया। उसने आग्रह किया कि बाल्टी जल्द खाली कर दें,क्योंकि कभी
भी किसी वीआईपी का फोन आ सकता है- कि कमरा तैयार करो। सुरेन्द्र जी ने
पूछा कि कैसे वीआईपी तो उसने बताया, कोई आईएएस या वाइसचांसलर।<br />
जोशी जी नहा कर निकले...। यार सुरेन्द्र अपन को तो यहां बहुत कष्ट हुआ।
लगता है कि बहुत दिन से यह बाथरूम यूज नहीं हुआ था। सब साफ करना पडा। आधा
घंटे और इंतजार करवाउंगा अपन। मेरा धोती पहनना पूरा कर्मकांड ही है। मेरी
बेटी कहती है कि आप तो बंगाली स्त्रियों से भी अच्छी धोती बांधते हैं, फिर
उन्होंने बिसलरी की बोतल से पानी पिया। सुरेन्द्र जी ने परिचय कराया कि
इन्हें समय चाहिए इंटरव्यू के लिए। जोशी जी ने पूछा, तो आप मेरा <i>आंत्रव्यू</i> लेंगे,जी हां - साक्षात्कार। शाम का समय मिला।<br />
<br />
शाम में हमलोग बैठे घंटे भर विनयन व शेखर से बात करने में गुजरे। फुर्सत
मिली तो जोशी जी बोले,यार बात तो होगी ,पहले कहीं से यह पता करो कि क्रिकेट
का स्कोर क्या है..। आखिर स्कोर मालूम हुआ। <br />
<i>पहला सवाल मेरे मन में यह था कि उत्तरआधुनिकता-अंग्रेजी की वापसी और ग्लोबलाईजेशन से हिंदी पत्रकारिता कैसे निपटेगी...।</i><br />
<br />
उनका कहना था कि भारत में उत्तरआधुनिकता नहीं है,हमारा समाज आधुनिक है,यह
कहना भी मुश्किल है। हिंदी पत्रकारिता के सामने संकट तो है,पटने में 12
पेज के अखबार ढाई रूपये में मिलते हैं और दिल्ली में 24 पेज के अखबार डेढ
रूपये में। पर डेढ में बेचकर भी उन्हें करोडों की कमाई हो जाती है। इसका
कारण है ग्लोबलाइजेशन व विज्ञापन। यह 1991 के बाद की आर्थिक स्थिति का
नतीजा है। ग्लोबलाइजेशन समाज को टुकडों में बांट कर देखता है। <br />
भाषा के अखबार जनता के अखबार हैं, पर उनका हितसाधक समाज टुकडों में बंटा
है। इसे राजनीति और व्यापार ने मिलकर बांटा है। आज लालू,मुलायम,नीतीश वोट
बैंक की राजनीति करते हैं। मुलायम ने कहा था कि मुझे उत्तराखंड की चिंता
नहीं है। आखिर एक मुख्यमंत्री एक पूरे इलाके को छोड देता है कि वह उसका
बोट बैंक नहीं है। फिर भी भाषा के अखबार जनता के होकर ही जीवित रह सकते
हैं। पर इसे बांटने वाली प्रवृति को रोकना होगा1 इधर प्रमंडल का अखबार
निकालने का चलन बढा है। यही नहीं <i>आज</i> व <i>जागरण</i> वाले तो जिले का
अखबार निकालने लगे हैं। इसी से समाज बंटता है। पर अखबार मालिकों के इशारे
पर चल रहे हैं, वे बताते हैं कि- इधर देश के सबसे बडे प्रकाशन गृह के
अध्यक्ष ने मुझसे कहा कि इन, जिले वाले अखबार, में क्या खराबी है...।
खर्च कम है ,लागत भी कम।<br />
<br />
<i>सौंदर्य प्रतियोगिता के विरोध में एक आदमी जल मरा। आरक्षण के विरोध में भी ऐसा हुआ था। पर महिला आरक्षण का मुददा गायब कर दिया गया।</i> <br />
इस सब की बाबत वे बताते हैं कि 1996 के चुनाव में सारी पर्टियों के
घोषणापत्र में 33 फीसदी आरक्षण की बात थी। पर उसे टाला जा रहा है। महिलाओं
का दबाव बढ रहा है। पर मौजूदा लोकसभा के अधिकांश सदस्य ऐसा नहीं चाहते।<br />
<br />
इधर शिवसेना व वाघेला तक ने क्षेत्रीय दलों का साथ चाहा है। क्या राष्ट्रीय दलों का जमाना लद गया है...।<br />
इस पर जोशी जी बताते हैं कि आज कोई दल राष्ट्रीय रह ही नहीं गया
है।,उत्तर के कई राज्यों में कांग्रेस का नामलेवा नहीं रह गया है। यहां
एक ही पार्टी थी कांग्रेस,उसकी जगह क्षेत्रीय पार्टियां ले रही हैं। पर ये
सीमित क्षेत्र की बंटी पार्टियां हैं। भाजपा और क्षेत्रीय पर्टियां साथ काम
करें तो कोई सूरत उभरे पर वह संभव नहीं लगती।<br />
<br />
<i>अचानक मेरा ध्यान घाली पर जाता है। कया यूएनओ एक अमेरिकी जेबी संस्था
है...। घाली के मुददे पर अमेरिका ने वीटो कर दिया। इराक के मामले में तो
राष्ट्रसंघ ने युद्ध की स्वीकृति दी पर अफगान मामले में ढंग से निंदा भी
नहीं की..।<br />
</i><br />
इससे सहमत होते जोशी जी कहते हैं कि सोवियत संघ के पराभव के बाद
अफगानिस्तान तबाही में है। एक लाख लोग वहां मारे जा चुके हैं। अमेरिका ने
पाकिस्तान को अफगानिस्तान में फंसाकर रख दिया है। पर पाक का अपना ही घर
नहीं संभल रहा । जहां तक यूएनओ की बात है अमेरिका हमेशा से इसका प्रयोग
विश्व जनमत को अपनी ओर मोडने में करता रहा है।<br />
<br />
<i>मैं फिर पत्रकारिता पर आता हूं। इधर <b>राजेंद्र यादव</b> ने अंग्रेजी पत्रकारिता से हिन्दी की तुलना कर उसकी फजीहत की कोशिश की है। क्या यह हिंदी की हीनता ग्रंथी है...।<br />
</i><br />
इस तरह की तुलना को जोशी जी गलत मानते हैं। ...हीनता से बचने के लिए
नहीं,परंपरा को समृद्ध करने के लिए हमें ऐसी तुलना से बचना चाहिए। <b>हमारी भाषाई पत्रकारिता अंग्रेजी से समृद्ध है।</b> अक्सर लोग अंग्रेजी से तुलना हिन्दी को झाडू लगाने के लिए करते हैं। अंग्रेजी की पत्रकारिता आज <i>उल्टे बांस बरेली को</i> भेज रही है। अंग्रेजी का अनुकरण कर हिंदी के अखबार कभी अच्छे नहीं हो सकते। <br />
<i>कुछ लोग क्षेत्रीय भाषायी पत्रकारिता को हिन्दी से समृद्ध बताते हैं...</i><br />
<br />
जवाब में वे कहते हैं कि यह हिन्दी की अंग्रेजी से हीनता जैसी ही ग्रंथी
है। यूं भाषायी पत्रकारिता ही हिंदी की जननी है। भारतीय पत्रकारिता की
शुरूआत ही बंगाल से हुई है। जोशी आजकल गांधी को फिर से पढ रहे हैं। उनका
मानना है कि साम्यवाद के पराभव व पूंजीवाद की विकृतियों के बीच का रास्ता
गांधी से ही निकलेगा। यह हो सकता है कि हमें गांधी की पगडंडी चौडी कर
राजपथ बनना पडे। क्योंकि पूंजीवाद की टेक्नोलाजी अपनाने से ही साम्यवाद
में केंद्रीकरण की प्रवृति बढी व वह टूटा। महाभारत को भी वे पढने की सलाह
देते हैं,कि मधुलिमये भी उसे पढते थे। उन्होंने <b>आलोक धन्वा</b> के लिए भी सलाह दी कि वे महाभारत पढें,उनका पराजय बोध घटेगा। <br />
महाभारत की विशेषता है कि वहां न कोई हारता है न जीतता है। सबका विजय-पराजय
दोनों से साबका पडता है। यह हिंदू धर्म की विशेषता है कि इसने तमाम
अवातारों को सजा दी है। राम-कृष्ण-ब्रम्हा सब को ब्रम्हांड के न्याय के
आगे सिर झुकाना पडा है। <br />
<i>अंतिम सवाल वरिष्ठ पत्रकार <b>हेमंत</b> करते हैं जो अभी अभी वहां आए हैं। वे पूछते हैं कि नये पत्रकारों को तैयार करने के लिए आप क्या कर रहे हैं...</i><br />
<br />
उनका जवाब था कि प्रेस इंस्टीच्यूट के जरिए हमलोग नयी पीढी को पत्रकारिता
के मूल्यों से परिचित कराने की सोच रहे हैं। नयी पीढी से अक्सर मुझे
निराशा मिलती है। <b>वे राजनीतिक तिकडमों को पत्रकारिता मानते हैं।</b> <br />
<i>एक सवाल और उठता है कि हिंदी में कालमिस्ट नहीं हैं...। </i><br />
उनका मानना है कि आज ज्यादातर अखबार अंग्रेजी के कालमिस्टों का अनुवाद छापते हैं ऐसे में क्या कहा जा सकता है। <b>आज <i>जागरण</i> व <i>उजाला</i> जैसे अखबार नकद पैसे देकर लेक्चररों से संपादकीय लिखवा ले रहे हैं । </b>वार्ता और भाषा को जोशी जी अंग्रेजी की उपशाखाएं मानते हैं। वे बोलते हैं कि आज हमें भाषाई समाचार सेवा शुरू करने की जरूरत है।</div>
</div>
अमरेन्द्र कुमारhttp://www.blogger.com/profile/02023208083585268292noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3219992674893084456.post-64876752277060592017-02-13T03:18:00.000-08:002017-02-13T03:18:41.333-08:00हरमन हेस - कि प्यार भी मर सकता है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="font-weight: normal; line-height: 100%; margin-bottom: 0in;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span style="font-family: "mangal"; font-size: small;"><span lang="hi-IN">कितने
भारी हैं ये दिन।</span></span></span></div>
<h4 style="text-align: left;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span style="font-size: small;">
</span></span></h4>
<h4 style="font-weight: normal; line-height: 100%; margin-bottom: 0in; text-align: left;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span style="font-family: "mangal"; font-size: small;"><span lang="hi-IN">कहीं
कोई आग नहीं जो मुझे गर्मा
सके</span></span><span style="font-family: , serif; font-size: small;">,</span></span></h4>
<h4 style="text-align: left;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span style="font-size: small;">
</span></span></h4>
<h4 style="font-weight: normal; line-height: 100%; margin-bottom: 0in; text-align: left;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span style="font-family: "mangal"; font-size: small;"><span lang="hi-IN">कोई
सूरज नहीं जो हंस सके मेरे
साथ</span></span><span style="font-family: , serif; font-size: small;">,</span></span></h4>
<h4 style="text-align: left;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span style="font-size: small;">
</span></span></h4>
<h4 style="font-weight: normal; line-height: 100%; margin-bottom: 0in; text-align: left;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span style="font-family: "mangal"; font-size: small;"><span lang="hi-IN">हर
चीज नंगी</span></span><span style="font-family: , serif; font-size: small;">,</span></span></h4>
<h4 style="text-align: left;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span style="font-size: small;">
</span></span></h4>
<h4 style="font-weight: normal; line-height: 100%; margin-bottom: 0in; text-align: left;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span style="font-family: "mangal"; font-size: small;"><span lang="hi-IN">सब
कुछ ठंडा और बेरहम</span></span><span style="font-family: , serif; font-size: small;">,</span></span></h4>
<h4 style="text-align: left;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span style="font-size: small;">
</span></span></h4>
<h4 style="font-weight: normal; line-height: 100%; margin-bottom: 0in; text-align: left;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span style="font-family: "mangal"; font-size: small;"><span lang="hi-IN">यहां
तक कि मेरा प्यार भी</span></span><span style="font-family: , serif; font-size: small;">,
</span></span>
</h4>
<h4 style="text-align: left;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span style="font-size: small;">
</span></span></h4>
<h4 style="font-weight: normal; line-height: 100%; margin-bottom: 0in; text-align: left;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span style="font-family: "mangal"; font-size: small;"><span lang="hi-IN">और
सितारे खाली निगाहों से नीचे
देख रहे</span></span><span style="font-family: , serif; font-size: small;">,</span></span></h4>
<h4 style="text-align: left;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span style="font-size: small;">
</span></span></h4>
<h4 style="font-weight: normal; line-height: 100%; margin-bottom: 0in; text-align: left;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span style="font-family: "mangal"; font-size: small;"><span lang="hi-IN">जब
से मुझे यह अहसास हुआ है </span></span></span>
</h4>
<h4 style="text-align: left;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span style="font-size: small;">
</span></span></h4>
<h4 style="font-weight: normal; line-height: 100%; margin-bottom: 0in; text-align: left;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span style="font-family: "mangal"; font-size: small;"><span lang="hi-IN">कि
प्यार भी मर सकता है।</span></span></span></h4>
<h4 style="font-weight: normal; line-height: 100%; margin-bottom: 0in; text-align: left;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span style="font-family: "mangal"; font-size: small;"><span lang="hi-IN"><i><span style="font-size: x-small;">अंग्रेजी से अनुवाद - कुमार मुकुल </span></i></span></span></span></h4>
</div>
अमरेन्द्र कुमारhttp://www.blogger.com/profile/02023208083585268292noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3219992674893084456.post-59781836268868613362017-02-11T01:54:00.001-08:002017-02-11T01:57:14.937-08:00सबसे बड़े वैदिक देवता भात ( ओदनम् )<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<i><span style="font-size: x-small;">वृहस्पति मस्तक है भात का <br />अश्व इसके कण हैं <br />गायें हैं चावल के दाने <br />और मच्छर हैं फोंतरे <br />घोंघे हैं इसके उूपर के छिलके <br />बादल इसका चारा है <br />काला लोहा है इसका मांस <br />और रूधिक है तांबा <br />जस्ता इसकी राख <br />हरित है इसका रंग <br />और नीलकमल है <br />इसकी गंध <br />यह धरती मिटटी का वर्तन है <br />इसमें पकता है भात <br />आकाश ढक्कन होता है <br />हल की फाल पसलियां हैं इसकी <br />मिटटी है इसका मल <br />ऋतुएं रसोइनें हैं इसकी <br />दिन और रात समिधाएं हैं <br />पांच मुख वाले चरू को <br />पका रहा घाम <br />इस भात को अर्पित कर <br />जो कर रहा है यज्ञ <br />सारे लोक <br />उसे प्राप्त होते हैं। </span></i><br /><span style="font-size: x-small;">( वरिष्ठ कवि <b>विजेन्द्र</b> के संपादन में निकल रही लघु पत्रिका <b>कृति ओर</b> के जुलाई-सितंबर 2007 अंक में <b>राधावल्लभ त्रिपाठी </b>द्वारा अनुदित अर्थववेद से लिया गया अंश )</span><br /><br />वेदों में क्या है<br /><br />वेद देव स्तुति से भरे हैं। देवता माने जो देता है। सुर जो सुरा का सेवन करते हैं असुर जो नहीं करते। वेदों में सर्वाधिक प्रार्थना इंद्र की हुई है। पर इसका मतलब यह नहीं कि इंद्र सबसे महत्वपूर्ण देवता हैं। इंद्र के बाद सबसे ज्यादा मंत्र अग्नि पर है। ऋग्वेद का आरंभ अग्नि पर लिखी ऋचा से होता है। यह सम्मान इंद्र को नहीं मिला है। दरअसल किस पर कितनी ऋचा है इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि उसमें क्या लिखा है। इंद्र पर लिखी गईं अधिकांश ऋचाएं धन-धान्य के लोभ में लिखी गई हैं। यजुर्वेद के तीसरे अध्याय में लिखा गया है कि हे सैकडों कर्मो वाले इंद्र , हमारे और तुम्हारे मध्य परस्पर क्रय-विक्रय जैसा व्यवहार संपन्न हो। अर्थात मुझे हर्विअन्न का फल मिलता रहे। हे इंद्र मूल्य लेकर क्रय योग्य फल मुझे दो। फिर उन ऋचाओं में इंद्र को सर्वश्रेष्ठ भी नहीं बताया गया है। अथर्ववेद में भात यानि चावल को देव मानकर कई ऋचाएं हैं। उनमें भात को जो सम्मान मिला है वह इंद्र के लिए लिखी गई सैकडों ऋचाओं में नहीं है।<br /><br />भात को न केवल त्रिदेवों का कारक बताया गया है बल्कि उसे काल का भी जन्मदाता माना गया है। इसी तरह उच्छिष्ट यानि जूठन-मधु की प्रशंसा में जो लिखा गया है उनमें भी मधु की इंद्र से अच्छी स्तुति है। इसी तरह रूद्र को भी जो महत्व दिया गया है यजुर्वेद में वह इंद्र से कम नहीं है। एक श्लोक में लिखा गया है- हे रूद्र आपके नेत्रों में तीनों लोक प्रकाशित हैं। आपको अन्य देवताओं से अलग और उत्कृष्ट जानकर हम आपको यज्ञ का भाग देते हैं। रूद्र को चिकित्सक के रूप में महत्व देते हुए कहा गया है कि - तुम सर्वरोगनाशक औषधि प्रदान करो और हमें जन्म-मरण के चक्र से मुक्त करो।<br /><br />ऐसा नहीं था कि वैदिक ऋषि केवल देवों और त्रिदेवों को ही पूजते थे। वे भात, मधु, पत्थर, आदि के साथ यजमान को भी पूजते थे। अपनी प्रशस्ति गाने में भी वे पीछे नहीं रहते थे। बहुत से ऋषियों ने खुद पर ही ऋचाएं लिखी हैं। जैसे अथर्व वेद में अथर्वा खुद की अभ्यर्थना करते हुए अपने को देवताओं से भी बडा दिखाते हैं।<br /><br />यजुर्वेद के तीसरे श्लोक में यजमान के लिए ऋषि लिखते हैं- हे यजमान, यश के निमित्त अन्न और अपरिमित धन व बल पाने के लिए मैं तुझे पूजता हूं। इस तरह वेद देवों-मनुष्यों-ऋषियों के भौतिकवादी व्यवहार को ज्यादा उजागर करते हैं आध्यात्कि व्यवहार को कम।</div>
अमरेन्द्र कुमारhttp://www.blogger.com/profile/02023208083585268292noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3219992674893084456.post-9170051134153106152017-02-10T23:57:00.000-08:002017-02-10T23:57:44.554-08:00विश्व पुस्तक मेला व भारतीय भाषाओं पर खतरा : सर्वे <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
विश्व
पुस्तक मेले में भाषा के स्तर पर भारत की उपस्थिति का अध्ययन किया जाना
चाहिए। हिन्दी को विश्व की बड़ी भाषाओं में एक होने का दावा तो किया जाता
हैं लेकिन वास्तव में नदी उल्टी बह रही है। हिन्दी की वास्तविक स्थिति के
साथ संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज भारतीय भाषाओं की हालत भाषा विमर्श
में गंभीरता की मांग कर रही है। साथ ही पाठकों की रूची के अनुरूप प्रकाशनों
के नहीं होने के कारण प्रकाशन का व्यवसाय भी संकट में दिखाई दे रहा है। <br />
मीडिया
स्टडीज ग्रुप ने इसके लिए दिल्ली में आयोजित पिछले चार विश्व पुस्तक मेले
का एक तुलनात्मक अध्ययन किया है।यह अध्ययन मीडिया के क्षेत्र में लोकप्रिय
मासिक शोध पत्रिका जन मीडिया में प्रकाशित हो रहा है। जन मीडिया अप्रैल
2012 से हर महीने नियमित दिल्ली से प्रकाशित होने वाली हिन्दी में देश की
एक मात्र शोध पत्रिका है। भारत सरकार के उच्च शिक्षा विभाग के तहत 1957 में
नेशनल बुक ट्रस्ट की स्थापना की गई थी और उसके मुख्य उद्देश्यों में
भारतीय भाषाओं में समाज में पढ़ने की रुचि बढ़ाने के लिए विभिन्न स्तरों
पर काम करना शामिल है।इसी उद्देश्य के तहत वह हर वर्ष विश्व पुस्तक मेले का
आयोजन करता है।<br />
पुस्तक मेले में शामिल होने वाले प्रकाशनों की संख्या- <br />
2013--- 1098<br />
2014---1027<br />
2016---850<br />
2017----789<br />
(विश्व
पुस्तक मेलों की नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित डायरेक्टरी के आधार पर
प्राप्त उपरोक्त आंकड़े। अध्ययन के दौरान 2015 के मेले की डायरेक्टरी की
अनुपलब्धता के कारण वर्ष 2015 के आंकड़े शामिल नहीं है लेकिन 2015 में भी
प्रकाशनों की संख्या 2014 की तुलना में कम होने की जानकारी अन्य स्रोतों से
हमें प्राप्त हुई है। <br />
विश्व पुस्तक मेला 2013 में भाषावार शामिल
प्रकाशकों की संख्या इस प्रकाऱ है।मेले में लगे कुल 1098 स्टॉल और स्टैंड
के बीच असमिया 03, बांग्ला05, अंग्रेजी643, गुजराती02, हिन्दी323,
कश्मीरी01, मैथली01, मलयालम12,मराठी02,उड़िया01,पंजा<br />
<div class="gmail_default">
<wbr></wbr>बी 06,संस्कृत18,तमिल05,तेलगू02,<wbr></wbr>उर्दू44 और विदेशी प्रतिभागी 30 थे।<br />
2013
के विश्व पुस्तक मेले में भारतीय भाषाओं की पुस्तकों के प्रकाशन और
प्रकाशकों के हालात का अंदाजा प्रकाशकों की संख्या को देखकर लगाया जा सकता
है। अंग्रेजी की तुलना में हिन्दी के प्रकाशकों की उपस्थिति आधी है। लेकिन
हिन्दी की वास्तविक उपस्थिति इससे भी बदत्तर है। हिन्दी के प्रकाशकों की
वास्तविक संख्या और भी कम है। हिन्दी के प्रकाशकों की मेले में उपस्थिति को
दर्शाती संख्या में ये तथ्य भी शामिल है कि हिन्दी के कई बड़े प्रकाशकों
ने दस-दस प्रकाशन गृह खोल रखे हैं और उन सभी प्रकाशन गृहों के नाम से मेले
में स्टॉल आवंटित किए जाते है जबकि मेले में उनकी उपस्थिति उन प्रकाशन
गृहों के नाम से नहीं होती है। बल्कि वे एक प्रकाशन के बड़े बैनर के तहत
जगह घेरने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले नाम भर हैं।मीडिया स्टडीज ग्रुप
ने 2013 में अध्ययन कर ये पाया था कि हिन्दी के ऐसे 11 प्रकाशक है जिन्होने
93 स्टॉल लगाए। आंकड़ों के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि 11 प्रकाशकों
ने हिन्दी के कुल स्टॉल्स में से 30 प्रतिशत स्टॉल लगाए। यानी लगभग तीन
प्रतिशत हिन्दी के प्रकाशकों के अधीन 30 प्रतिशत स्टॉल थे।<br />
विश्व पुस्तक
मेले में भारतीय भाषाओं की उपस्थिति ज्यादा से ज्यादा सुनिश्चित हो सके,
इस तरह के प्रयास को भी काफी पीछे छोड़ा दिया गया है। इसके स्पष्ट संकेत
मिलते हैं। 2013 की तुलना में बाद के तीन पुस्तक मेलों में भारतीय भाषाओं
की उपस्थिति के रुझान को समझा जा सकता है। इस तुलनात्मक अध्ययन में मेले
में तीन प्रतिशत हिन्दी के प्रकाशकों द्वारा 30 प्रतिशत स्टॉल लेने की
प्रवृत्ति को आगे शामिल नहीं किया गया है क्योंकि यह एक स्थायी प्रवृत्ति
बन चुकी है। हिन्दी के स्टॉलों के लिए दी जाने वाली सुविधाओं का लाभ कई
प्रकाशन गृहों के नाम पर बड़े प्रकाशक ले लेते हैं और उन्हें एक तरह से
स्वीकृति प्राप्त है। लिहाजा भारतीय भाषाओं और प्रकाशनों की संख्या के कम
होते जाने का तुलनात्मक अध्ययन ही आगे दे रहे हैं। <br />
2014 के विश्व
पुस्तक मेले में भाषावार 1027 प्रकाशनों की भागेदारी में असमिया 3,
बांग्ला09, अंग्रेजी 596, हिन्दी 324,मलयालम 09 ,मराठी 01, उड़िय01,
पंजाबी04,संस्कृत 05, सिंधी01,तमिल07,तेलुगू01,उर्दू<wbr></wbr>41,विदेशी
प्रतिभागी25 हैं। गौर तलब है कि पुस्तक मेले में न केवल प्रकाशनों की
भागोदारी की संख्या ही कम होने की प्रवृति बढ़ने के संकेत है जो कि आने
वाले वर्षों में और भी स्पष्ट होते हैं, कई भारतीय भाषाओं की उपस्थिति
मात्र के भी खत्म होने के संकेत मिलते हैं। 2016 के पुस्तक मेले में कुल
850 प्रकाशनों में असमिया01,बांग्ला04,अंग्रेजी
483,गुजराती01,हिन्दी289,मलया<wbr></wbr>लम06,मराठी01,उड़िया02,पंजाबी<wbr></wbr>10,सिंधी01,तमिल04,उर्दू21,विदे<wbr></wbr>शी प्रतिभागी 27 शामिल है। <br />
2013
की तुलना में 2016 के पुस्तक मेले में भारतीय भाषाओं में असमिया प्रकाशन
की संख्या मेले में घटकर एक पर पहुंच गई तो बांग्ला की चार, गुजराती की एक,
मराठी की एक पर पहुंच गई। दूसरी तरफ कश्मीरी, मैथली, तेलगू की उपस्थिति
मात्र भी खत्म हो गई। तमिल प्रकाशनों की संख्या भी चार पर पहुंच गई। केवल
पंजाबी भाषा के प्रकाशनों की संख्या में इजाफा दिखाई देता है। 2013 की
तुलना में 2016 में उर्दू प्रकाशनों की संख्या आधे से भी कम हो गई। 2017
में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में भारतीय भाषाओं की उपस्थिति और भी कम हुई।
कुल 789 प्रकाशनों में बांग्ला 07,अंग्रेजी448,गुजराती01,हिन्<wbr></wbr>दी272,मलयालम06,मराठी01,उड़िया<wbr></wbr>01,पंजाबी10,संस्कृत 03, सिंधी03,तमिल01,तेलुगू01,उर्दू <wbr></wbr>
16, विदेशी प्रतिभागी19 थे। 2016 में भारतीय भाषाओं की विश्व पुस्तक मेले
में उपस्थिति कम होने का जो रुझान दिखाई दिया उसमें सुधार लाने के प्रयास
किए गए, यह 2017 के पुस्तक मेले में दिखाई नहीं देता है बल्कि उस रुझान की
दिशा अपनी गति की तरफ तेजी से बढ़ती दिख रही है। 2013 के बाद 2016 में कुल
प्रकाशनों की संख्या में जो कमी देखी गई, वह कमी 2017 में और बढ़ी। इस वर्ष
मेले में गायब होने वाली भारतीय भाषाओं में असमिया शामिल हो गई। उत्तर
पूर्व के राज्यों की बड़ी भाषा असमिया की उपस्थिति अनुपस्थिति में
परिवर्तित दिखाई देती है। कश्मीरी, मैथली में भी कोई सुधार दिखाई नहीं देता
है। तेलगू अनुपस्थिति को उपस्थिति के रूप में दर्ज भर कराती है, लेकिन
तमिल की संख्या पिछले मेले की तुलना में केवल पच्चीस प्रतिशत रह गई। उड़िया
की संख्या भी दो से एक हो गई। सिंधी और संस्कृत की उपस्थिति में थोड़ा
सुधार दिखाई दिया। सिंधी के केवल एक प्रकाशन की उपस्थिति 2016 में थी जो
2017 में संस्कृत के बराबर तीन हो गई। 2016 में संस्कृत मेले से अनुपस्थित
थी। लगातार जिन भाषाओं की उपस्थिति तेजी से मेले में घट रही उनमें उर्दू एक
है। उर्दू के प्रकाशनों की उपस्थिति 2016 के मुकाबले और कम हो गई। यदि
2013 से तुलना करें तो उसकी उपस्थिति सत्तर प्रतिशत के आस-पास कम हुई है। <br />
इस
तरह पिछले कई वर्षों से पुस्तक मेले में प्रकाशकों की कम होती हिस्सेदारी
भारतीय भाषाओं के प्रकाशनों की स्थिति के कमजोर होते जाने का संकेत देती
है। दूसरा भाषाओं के जरिये भारत विश्व के पटल पर अपने मुक्कमल रूप में
उपस्थित नहीं दिखता है।भाषावार प्रकाशनों में बड़े प्रकाशकों के व्यवसाय का
विस्तार हुआ है। लेकिन भाषाओं के प्रकाशनों की वास्तविक संख्या में
बढ़ोतरी नहीं देखने को मिल रही है।वास्तविक संख्या में बौद्धिक विमर्श को
विस्तार देने वाली और मौलिक प्रकाशनों की कमी बढ़ रही है। हिन्दी में जो
स्ट़ॉल की संख्या दिख रही है, उस संख्या में घुसकर देखें कि कितनी
धर्म-कर्म, कर्मकांडी, जादू टोना, अश्लील साहित्य की दुकानें हैं।पुस्तक
मेले में स्टॉल और स्टैंड के बीच भी एक खाई साफ दिखती है। स्टैंड को मेले
की फुटपाथी दूकान के रूप में देखा जा सकता है लेकिन स्टैंडों पर बौद्धिक
विमर्शों और मौलिक प्रकाशनों की संख्या बढ़ रही है। </div>
<div class="gmail_default">
<b><span style="font-size: x-small;">मीडिया स्टडीज ग्रुप , चैयरमैन <br />अनिल चमड़िया<br />9868456745</span></b></div>
</div>
अमरेन्द्र कुमारhttp://www.blogger.com/profile/02023208083585268292noreply@blogger.com0