वृहस्पति मस्तक है भात का
अश्व इसके कण हैं
गायें हैं चावल के दाने
और मच्छर हैं फोंतरे
घोंघे हैं इसके उूपर के छिलके
बादल इसका चारा है
काला लोहा है इसका मांस
और रूधिक है तांबा
जस्ता इसकी राख
हरित है इसका रंग
और नीलकमल है
इसकी गंध
यह धरती मिटटी का वर्तन है
इसमें पकता है भात
आकाश ढक्कन होता है
हल की फाल पसलियां हैं इसकी
मिटटी है इसका मल
ऋतुएं रसोइनें हैं इसकी
दिन और रात समिधाएं हैं
पांच मुख वाले चरू को
पका रहा घाम
इस भात को अर्पित कर
जो कर रहा है यज्ञ
सारे लोक
उसे प्राप्त होते हैं।
( वरिष्ठ कवि विजेन्द्र के संपादन में निकल रही लघु पत्रिका कृति ओर के जुलाई-सितंबर 2007 अंक में राधावल्लभ त्रिपाठी द्वारा अनुदित अर्थववेद से लिया गया अंश )
वेदों में क्या है
वेद देव स्तुति से भरे हैं। देवता माने जो देता है। सुर जो सुरा का सेवन करते हैं असुर जो नहीं करते। वेदों में सर्वाधिक प्रार्थना इंद्र की हुई है। पर इसका मतलब यह नहीं कि इंद्र सबसे महत्वपूर्ण देवता हैं। इंद्र के बाद सबसे ज्यादा मंत्र अग्नि पर है। ऋग्वेद का आरंभ अग्नि पर लिखी ऋचा से होता है। यह सम्मान इंद्र को नहीं मिला है। दरअसल किस पर कितनी ऋचा है इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि उसमें क्या लिखा है। इंद्र पर लिखी गईं अधिकांश ऋचाएं धन-धान्य के लोभ में लिखी गई हैं। यजुर्वेद के तीसरे अध्याय में लिखा गया है कि हे सैकडों कर्मो वाले इंद्र , हमारे और तुम्हारे मध्य परस्पर क्रय-विक्रय जैसा व्यवहार संपन्न हो। अर्थात मुझे हर्विअन्न का फल मिलता रहे। हे इंद्र मूल्य लेकर क्रय योग्य फल मुझे दो। फिर उन ऋचाओं में इंद्र को सर्वश्रेष्ठ भी नहीं बताया गया है। अथर्ववेद में भात यानि चावल को देव मानकर कई ऋचाएं हैं। उनमें भात को जो सम्मान मिला है वह इंद्र के लिए लिखी गई सैकडों ऋचाओं में नहीं है।
भात को न केवल त्रिदेवों का कारक बताया गया है बल्कि उसे काल का भी जन्मदाता माना गया है। इसी तरह उच्छिष्ट यानि जूठन-मधु की प्रशंसा में जो लिखा गया है उनमें भी मधु की इंद्र से अच्छी स्तुति है। इसी तरह रूद्र को भी जो महत्व दिया गया है यजुर्वेद में वह इंद्र से कम नहीं है। एक श्लोक में लिखा गया है- हे रूद्र आपके नेत्रों में तीनों लोक प्रकाशित हैं। आपको अन्य देवताओं से अलग और उत्कृष्ट जानकर हम आपको यज्ञ का भाग देते हैं। रूद्र को चिकित्सक के रूप में महत्व देते हुए कहा गया है कि - तुम सर्वरोगनाशक औषधि प्रदान करो और हमें जन्म-मरण के चक्र से मुक्त करो।
ऐसा नहीं था कि वैदिक ऋषि केवल देवों और त्रिदेवों को ही पूजते थे। वे भात, मधु, पत्थर, आदि के साथ यजमान को भी पूजते थे। अपनी प्रशस्ति गाने में भी वे पीछे नहीं रहते थे। बहुत से ऋषियों ने खुद पर ही ऋचाएं लिखी हैं। जैसे अथर्व वेद में अथर्वा खुद की अभ्यर्थना करते हुए अपने को देवताओं से भी बडा दिखाते हैं।
यजुर्वेद के तीसरे श्लोक में यजमान के लिए ऋषि लिखते हैं- हे यजमान, यश के निमित्त अन्न और अपरिमित धन व बल पाने के लिए मैं तुझे पूजता हूं। इस तरह वेद देवों-मनुष्यों-ऋषियों के भौतिकवादी व्यवहार को ज्यादा उजागर करते हैं आध्यात्कि व्यवहार को कम।
अश्व इसके कण हैं
गायें हैं चावल के दाने
और मच्छर हैं फोंतरे
घोंघे हैं इसके उूपर के छिलके
बादल इसका चारा है
काला लोहा है इसका मांस
और रूधिक है तांबा
जस्ता इसकी राख
हरित है इसका रंग
और नीलकमल है
इसकी गंध
यह धरती मिटटी का वर्तन है
इसमें पकता है भात
आकाश ढक्कन होता है
हल की फाल पसलियां हैं इसकी
मिटटी है इसका मल
ऋतुएं रसोइनें हैं इसकी
दिन और रात समिधाएं हैं
पांच मुख वाले चरू को
पका रहा घाम
इस भात को अर्पित कर
जो कर रहा है यज्ञ
सारे लोक
उसे प्राप्त होते हैं।
( वरिष्ठ कवि विजेन्द्र के संपादन में निकल रही लघु पत्रिका कृति ओर के जुलाई-सितंबर 2007 अंक में राधावल्लभ त्रिपाठी द्वारा अनुदित अर्थववेद से लिया गया अंश )
वेदों में क्या है
वेद देव स्तुति से भरे हैं। देवता माने जो देता है। सुर जो सुरा का सेवन करते हैं असुर जो नहीं करते। वेदों में सर्वाधिक प्रार्थना इंद्र की हुई है। पर इसका मतलब यह नहीं कि इंद्र सबसे महत्वपूर्ण देवता हैं। इंद्र के बाद सबसे ज्यादा मंत्र अग्नि पर है। ऋग्वेद का आरंभ अग्नि पर लिखी ऋचा से होता है। यह सम्मान इंद्र को नहीं मिला है। दरअसल किस पर कितनी ऋचा है इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि उसमें क्या लिखा है। इंद्र पर लिखी गईं अधिकांश ऋचाएं धन-धान्य के लोभ में लिखी गई हैं। यजुर्वेद के तीसरे अध्याय में लिखा गया है कि हे सैकडों कर्मो वाले इंद्र , हमारे और तुम्हारे मध्य परस्पर क्रय-विक्रय जैसा व्यवहार संपन्न हो। अर्थात मुझे हर्विअन्न का फल मिलता रहे। हे इंद्र मूल्य लेकर क्रय योग्य फल मुझे दो। फिर उन ऋचाओं में इंद्र को सर्वश्रेष्ठ भी नहीं बताया गया है। अथर्ववेद में भात यानि चावल को देव मानकर कई ऋचाएं हैं। उनमें भात को जो सम्मान मिला है वह इंद्र के लिए लिखी गई सैकडों ऋचाओं में नहीं है।
भात को न केवल त्रिदेवों का कारक बताया गया है बल्कि उसे काल का भी जन्मदाता माना गया है। इसी तरह उच्छिष्ट यानि जूठन-मधु की प्रशंसा में जो लिखा गया है उनमें भी मधु की इंद्र से अच्छी स्तुति है। इसी तरह रूद्र को भी जो महत्व दिया गया है यजुर्वेद में वह इंद्र से कम नहीं है। एक श्लोक में लिखा गया है- हे रूद्र आपके नेत्रों में तीनों लोक प्रकाशित हैं। आपको अन्य देवताओं से अलग और उत्कृष्ट जानकर हम आपको यज्ञ का भाग देते हैं। रूद्र को चिकित्सक के रूप में महत्व देते हुए कहा गया है कि - तुम सर्वरोगनाशक औषधि प्रदान करो और हमें जन्म-मरण के चक्र से मुक्त करो।
ऐसा नहीं था कि वैदिक ऋषि केवल देवों और त्रिदेवों को ही पूजते थे। वे भात, मधु, पत्थर, आदि के साथ यजमान को भी पूजते थे। अपनी प्रशस्ति गाने में भी वे पीछे नहीं रहते थे। बहुत से ऋषियों ने खुद पर ही ऋचाएं लिखी हैं। जैसे अथर्व वेद में अथर्वा खुद की अभ्यर्थना करते हुए अपने को देवताओं से भी बडा दिखाते हैं।
यजुर्वेद के तीसरे श्लोक में यजमान के लिए ऋषि लिखते हैं- हे यजमान, यश के निमित्त अन्न और अपरिमित धन व बल पाने के लिए मैं तुझे पूजता हूं। इस तरह वेद देवों-मनुष्यों-ऋषियों के भौतिकवादी व्यवहार को ज्यादा उजागर करते हैं आध्यात्कि व्यवहार को कम।
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